शनिवार, 18 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(२५-७)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह उपदेश*
*देह पियारी जीव को, निशदिन सेवा मांहि ।* 
*दादू जीवन मरण लौं, कबहूँ छाड़ी नांहि ॥२५॥* 
*देह पियारी जीव को, जीव पियारा देह ।*
*दादू हरि रस पाइये, जे ऐसा होइ स्नेह ॥२६॥* 
सतगुरुदेव कहते हैं कि संसारी प्राणियों को भौतिक देह अत्यन्त ही प्यारी है । इसलिए यह देहाध्यासी जीवात्मा प्रतिक्षण देह के सजने सँवारने(श्रृंगार) में ही व्यस्त रहता है और जब से सुरति संभाली है, तब से मरण पर्यन्त देह प्रपंच में ही लगा हुआ है । श्री सतगुरु महाप्रभु उपदेश करते हैं कि जैसे जीवात्मा को देह प्यारी है और देह को जीवात्मा प्यारा है अर्थात् शरीर पर कोई कï आवे तो जीवात्मा भाग छूटता है और प्राणों पर कोई प्रहार करे तो हाथ-पैर आदिक शरीर प्राणों की रक्षा करते हैं । इसी प्रकार विरहीजन भी भगवत् से अनन्यभाव होकर रहें, तो हरि-रस, भगवद्-दर्शन व मोक्षरूप परम-तत्व सहज सुलभ हैं ॥२५/२६॥ 
जिकर फिकर फोकट सबै, ना कछु ज्ञान अरु ध्यान । 
"टोडर" जप तप आदि सब, प्रेम प्रीति कछु आन ॥
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*दादू हरदम मांहि दिवान, सेज हमारी पीव है ।* 
*देखूँ सो सुबहान, ये इश्क हमारा जीव है ॥२७॥* 
दादूजी कहते हैं, पीव कहिए, प्रीतम पालन करने वाला, दीवान कहिए, परमेश्वर न्यायकारी, हरदम नाम हर समय प्रति श्वास में, हम विरहीजनों के अन्त:करण रूपी सेज में ही विद्यमान कहिए, प्रकट है । और समस्त सुन्दरताओं का सुन्दर रूप सुहावन कहिए, अनुपम सुन्दर है, जिससे पीव के प्रेम में ही विरहीजन जीवित हैं ॥२७॥ 
(क्रमशः)

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