सोमवार, 20 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(३१-३)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"॥ श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =* 
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*दादू मैं भिखारी मंगता, दर्शन देहु दयाल ।*
*तुम दाता दुःख भंजता, मेरी करहु संभाल ॥३१॥*
सतगुरु भगवान् कहते हैं कि हम तो आपके भिखारी अर्थात् मंगते हैं,(मंगते चार प्रकार के होते हैं – रिंगारी, टिंगारी, भिखारी और श्रृंगारी), दर्शनों की भीख माँगने वाले । हे दयालु ! दर्शन देओ । आप तो सब दुखों का नाश करके आनन्द के दाता हो । अब हम विरहीजनों की संभाल करो ॥३१॥ 
दर्शन चार प्रकार के, हमहिं होत हैं तीन । 
श्रवण, स्वप्न अरु चित्र में, प्रकट न होत प्रवीन ॥ 
*छिन बिछोह*
*क्या जीये में जीवना, बिन दर्शन बेहाल ।*
*दादू सोई जीवना, प्रकट परसन लाल ॥३२॥*
सतगुरु भगवान् कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! वह जीवन भी क्या जीवन है? जिसमें परमात्मा के दर्शन नहीं हुए हैं, ऐसा जीवन वृथा है । इसलिए वही जीवन सार्थक है, जिसमें प्यारे प्रीतम प्रसन्न होकर प्रकट होते हैं और दर्शन देते हैं ॥३२॥ 
बिरही जन को कौन सुख, कहि धौं इहि कलिकाल । 
नैनां गंग तरंग लौं, बिन दर्शन बेहाल ॥ 
चाह आहि दीदार की, सो हरि लिया लुकाय । 
जगन्नाथ कैसी करी, देत कहा घट जाय ॥ 
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*इहि जग जीवन सो भला, जब लग हिरदै राम ।*
*राम बिना जे जीवना, सो दादू बेकाम ॥३३॥*
ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज कहते हैं कि संसार में वही जीवन श्रेष्ठ है जो कि परमेश्वर प्रकट होकर दर्शन देवें और वही जीवन धन्य है । इसलिए हे जिज्ञासुओं ! जब लग हृदय राम-नाम में संलग्न है, तभी तक जीवन सफल है और भगवत विमुख होकर जीना तो निरर्थक है ॥३३॥ 
जगजीवन फाटे नहीं, छतियां पिव के नेह ।
ध्रक यो जीवन ध्रक जनम, ध्रक यो गन्दी देह ॥ 
जैसे जिये बिना काया सूनी, वारी मथे क्यूं निकसे लूनी ।
लोण बिना भोजन नहीं नीका, मोहन हरि बिन सब धर्म फीका ॥
(क्रमशः)

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