॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह विनती*
*दादू कहु दीदार की, सांई सेती बात ।*
*कब हरि दरशन देहुगे, यहु औसर चलि जात ॥३४॥*
ब्रह्मर्षि कहते हैं कि हे पापों के हरने वाले हरि ! विरहीजनों का मनुष्य-जन्म रूप यह अवसर आपके विरह दु:ख में व्यतीत हो रहा है । अब आप कब दर्शन देओगे? विरहीजनों को सत्य-सत्य कहिए ॥३४॥
उमड़ चले दोऊ नैन, चैन नहीं चित्त जी ।
हरि जी तुमरो पंथ, निहारूं नित्त जी ।
अब जानि करहु अधीन, आप मिल मोहि सूं ।
हरि हां बाजींद, तन मन जोबन प्राण, समर्प्यो तोहि कूं ॥
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*बिथा तुम्हारे दर्श की, मोहि व्यापे दिन रात ।*
*दुखी न कीजे दीन को, दर्शन दीजे तात ॥३५॥*
महाराज ब्रह्मर्षि कहते हैं कि प्यारे प्रीतम ! आपके दर्शनों का विरह दुख मुझे रात-दिन व्यापता है अर्थात् पीड़ित करता है । अब हम दीनों को अपना दर्शन देकर दु:ख से उबारिए ॥ ३५ ॥
देहु मौज दीदार की, लेहु, न याको अंत ।
चातक बोले चहुँ दिशा, निशा अंधेरी कंत ॥
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*दादू इस हियड़े ये साल, पीव बिन क्योंहि न जाइसी ।*
*जब देखूँ मेरा लाल, तब रोम रोम सुख आइसी ॥३६॥*
श्री दयालु महाप्रभु कहते हैं कि हमारे हृदय में तो एक भगवत विरह का ही "साल" कहिए, भारी दु:ख है । सो भगवद् दर्शनों के बिना और किसी भी तरह दूर नहीं हो सकता है । हे हमारे प्रीतम प्यारे ! जब हम तेरा दर्शन कर लेंगे तब ही हमारा रोम-रोम प्रफुल्लित होएगा ॥३६॥
तन्त्र न मन्त्र न औषधी, कछू न लगहि ताहि ।
जात न वेदन विरह की, मरै कराहि कराहि ॥
निशि नहीं आवै नींद, अन्न नहिं खात है ।
पल पल परै न चैन, जीव यह जात है ।
तुम तरवर हम छाँह, फेर क्यूं कीजिए ।
हरि हाँ बाजींद, घट पट अन्दर खोल के दर्शन दीजिए ॥
(क्रमशः)
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