बुधवार, 22 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(३७-९)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)" 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*तूँ है तैसा प्रकाश कर, अपना आप दिखाइ ।*
*दादू को दीदार दे, बलि जाऊँ विलंब न लाइ ॥३७॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि हे दयानिधि ! जैसे आप शान्त एकरस प्रकाश स्वरूप हैं, वैसा ही प्रकाश हमारे हृदय में भी कीजिये । जिससे आपके सत्चित् आनन्द ब्रह्म स्वरूप का हम विरहीजन साक्षात्कार करें । हे प्रभु ! आपकी मैं बारम्बार वंदना करता हूँ, अब आप देरी नहीं करिए ॥३७॥
कहिये सुणिये राम और नहीं चित्त रे ।
हरि चरणन को ध्यान, सुमरिये नित्य रे ॥
जीव विलंब्या पीव दुहाई राम की ।
हरि हाँ, सुख सम्पति बाजींद, कहो किस काम की ॥
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*दादू पिव जी देखै मुझ को, हौं भी देखूँ पीव ।*
*हौं देखूँ देखत मिलै, तो सुख पावै जीव ॥३८॥*
ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी महाराज कहते हैं कि हे सर्वव्यापक प्रभु ! आप हम विरहीजनों को साकार रूप में देखें और हम विरहीजन भी ध्यान-धारणा द्वारा भगवत् की मोहिनी मूर्ति का अनुभव करें । किन्तु जैसे हम विरहीजनों को भगवत साकार रूप में देखते हैं, उसी प्रकार हम विरहीजन भी स्थूल चक्षुओं से भगवत का दर्शन करें, तो हमारा विरह दु:ख दूर होवे । और हम परमानन्द का अनुभव करें और परमेश्वर हम सब को देखता है । हम विरहीजन भी व्यष्टिभाव से ईश्वर के दर्शनों के लिए व्याकुल हैं । किन्तु जब हम समष्टिभाव से सर्व प्राणियों में ईश्वर बुद्धि करें तो तत्काल ही सुख-दु:ख आदि द्वन्दों से विमुक्त होवें और द्वैतभाव को विसार कर जीवन-मुक्ति रूप परमानन्द का अनुभव करें ॥३८॥
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*विरह कसौटी*
*दादू कहै, तन मन तुम पर वारणैं, कर दीजे कै बार ।*
*जे ऐसी विधि पाइये, तो लीजे सिरजनहार ॥३९॥*
गुरुदेव कहते हैं कि हे प्रभु ! यदि आप तन-मन आदि को भेंट करने से ही दर्शन देओ तो यह तन-मन आदि भी आप को बारम्बार भेंट करते हैं । हे सिरजनहार ! हम विरहीजनों का सर्वस्व आपके चरणों में है । अब इस माया-बन्धन को दूर करके अपना दर्शन दीजिए और चितावणी पक्ष में जानो कि हे जिज्ञासुजनों ! यदि तन-मन देने से ही हरि मिलते हैं, तो यह तन-मन आदि तो प्रभु के ही दिए हुए हैं । इसलिए अब इनको भेंट करके सिरजनहार को लीजिए ॥३९॥ 
रोम रोम वजूद करि, सूली दीजे मोहि ।
गुनह घणा थोड़ी सजा, साहिब मालूम तोहि ॥
(क्रमशः)

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