॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह पतिव्रत*
*दीन दुनी सदके करूँ, टुक देखण दे दीदार ।*
*तन मन भी छिन छिन करूँ, भिस्त दोजग भी वार ॥४०॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि प्रभु ! संसार के समस्त मत और समस्त धर्म और हम विरहीजनों का पतिव्रत धर्म, समस्त संसार के इष्ट अनिष्ट पदार्थ, आपके भेंट हैं । और(भिस्त-दोज़ख) स्वर्ग-नरक आदि भी आपके वारणैं(न्यौछावर) करते हैं । हे स्वामिन् ! हमें तो केवल आपके दर्शनों की ही प्रबल इच्छा है, आप दर्शन दीजिए । और तन मन का यह अभिप्राय है कि सम्पूर्ण इन्द्रियां अपने-अपने विषयों के व्यापार को त्यागकर केवल आपके ही ध्यान में एकरस हो जावें ॥४०॥
इस साखी से परम गुरुदेव ने निष्काम कर्म योग का उपदेश किया है । "दिन दुनी" को न्यौछावर, यह कहने से यहाँ सकाम कर्मों का उल्लेख है । इसलिए जब तक जिज्ञासु सकाम कर्मों में व्यस्त रहता है, तब तक स्वर्ग और नरक आदि का भी उसके लिए बन्धन है । किन्तु निष्काम कर्म का आश्रय लेता है, तो वह जिज्ञासुजन, फिर जीवन-मुक्त होकर परम पद को प्राप्त कर लेता है ।
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*दादू हम दुखिया दीदार के, तूं दिल थैं दूरि न होइ ।*
*भावै हमको जाल दे, होना है सो होइ ॥४१॥*
हे प्रभु ! आपके दर्शनों के लिये हम अति दुखी हैं । आप हमारे हृदय से दूर नहीं होइये । हमारा मन आपकी भक्ति में लीन रहे । हे दयानिधे ! भले ही आप हमें विरह अग्रि में जलाइये एवं शरीर आदि का जो होना है सो होवे, किन्तु हम विरहीजनों का मन आपके नाम में ही निश्चल रहे, ऐसी अनुकम्पा करिये ॥४१॥
बालम बस्यो विदेश, भया वह मौन है ।
सोवै पाँव पसार, सु ऐसा कौन है ॥
अति ही कठिन यह रैन, बीतती जीव सौं ।
हरि हाँ बाजींद, है कोई चतुर सुजान, कहै जाय पीव सौं ॥
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*विरह पतिव्रत*
*दादू कहै, जे कुछ दिया हमको, सो सब तुम ही लेहु ।*
*तुम बिन मन मानै नहीं, दरस आपणां देहु ॥४२॥*
हे कृपामय प्रभु ! आपने जो कुछ लौकिक विभूति कहिए, ऐश्वर्य हमें दे रखा है, उसको वापिस ही ले लीजिए, क्योंकि आपके वियोग में सांसारिक पदार्थ हमको दु:खरूप प्रतीत होते हैं । इसलिए हम विरहीजनों को तो केवल आपका दर्शन ही चाहिए ॥४२॥
(क्रमशः)
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