शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(४३-५)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*= विरह का अंग - ३ =*
.
*दूजा कुछ मांगै नहीं, हमको दे दीदार ।* 
*तूं है तब लग एक टग, दादू के दिलदार ॥४३॥* 
हे प्रभु ! हम आपसे और किसी पदार्थ की भी इच्छा नहीं करते हैं । हमें तो केवल आपका दर्शन ही चाहिए । हे प्यारे ! दिल की जानने वाले दिलदार ! जब तक इस पंच भौतिक शरीर पर आपकी कृपा है, तब तक यह जीवात्मा आपकी भक्ति में ही लयलीन रहे ॥४३॥ 
.
*दादू कहै, तूं है तैसी भक्ति दे, तूं है तैसा प्रेम ।* 
*तूं है तैसी सुरति दे, तूं है तैसा खेम ॥४४॥* 
हे भगवन् ! जैसे आप स्वयं निर्मल और एकरस हैं, ऐसी ही निर्मल और अखण्ड भक्ति हमें दीजिए । और आपका जैसा शान्त अनन्त प्रकाश स्वरूप है, वैसा ही हम विरहीजनों को आपके प्रति निश्चल, निर्मल दिव्य प्रकाश दीजिए । हे प्रभो ! आपका जैसा सूक्ष्म व्यापक स्वरूप है, ऐसी आपके भक्तों की भी आप में सुरति हो । हे नाथ ! आपके भक्त सम्पूर्ण बाह्य विषयों से विमुख होकर सर्वत्र आप परमेश्वर का ही स्वरूप हम अन्दर अनुभव करें । इस रीति से भवगत् भक्तों का मनुष्य-जीवन आपके समान ही सत्य स्वरूप और कल्याणमय होवे । ऐसी आप कृपा करिये ॥४४॥
.
*दादू कहै, सदिके करूँ शरीर को, बेर बेर बहु भंत ।*
*भाव भक्ति हित प्रेम ल्यौ, खरा पियारा कंत ॥४५॥* 
हे प्यारे प्रियतम ! हम विरहीजन अपने इस पंच भौतिक शरीर को बारम्बार कहिए तप, जप, व्रत आदि बहुत कष्ट साधनों के द्वारा आपके अर्पण करते हैं । हे परमेश्वर ! आप हमारे को भाव, भक्ति, हित, प्रेम और लय रूप साधनों के द्वारा निश्चय ही प्रिय लगते हो । हमारी प्रार्थना है कि हमारी सुरति आप में ही संग्न रहे ॥४५॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें