रविवार, 2 सितंबर 2012

= विरह का अँग ३ =(५५/७)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =*
*मीयां मैंडा आव घर, वांढी वंता लोइ ।*
*डुखंडे मुहिंडे गये, मरां विच्छौहे रोइ ॥५५॥* 
टीका - दयालु महाराज कहते हैं कि हमारा मीयां कहिए मालिक(स्वामी) पति तिस्रकार करें और मैं दुहागिन स्त्री "वंता", भरमती फिरूँ, तो "लोई" कहिए लोक-लोकान्तरों में मेरे दुखड़े बढ़ गए हैं । आप मेरे हृदयरूपी घर में अपना प्रकाश करों, क्योंकि आपके विरह में मैं विरहनी आपके दर्शनों के बिना रो-रो कर मरती हूँ अत: अब अपना दर्शन देकर कृतार्थ कीजिए ॥५५॥ 
*विरह पतिव्रत*
*है, सो निधि नहिं पाइये, नहीं, सो है भरपूर ।* 
*दादू मन मानै नहीं, ताथैं मरिये झूर ॥५६॥* 
टीका - सतगुरुदेव कहते हैं कि जो भगवत् वस्तुत: सत्-चित-आनन्द स्वरूप है, उसकी तो प्राप्ति होती नहीं है और जो माया प्रपंच वस्तुत: नहीं है, उसकी मृगतृष्णा के जलवत् सर्वत्र भ्रान्ति हो रही है । किन्तु दु:ख रूप इस माया-प्रपंच से तो हम विरहीजनों का मन संतुष्ट होता नहीं और नित्य सुख-स्वरूप जिस भगवत् की चाहना है, वह प्राप्त है नहीं । इसी से भगवद्-भक्त विरह में अति व्यथित होकर रो-रो कर मर रहे हैं ॥५६॥ 
अरिल छन्द :-
लम्बे लेत हु स्वांस, हियो भरि आइ है । 
लगी विरह की आगि, सु कौन बुझाइ है ॥ 
आह करत है जीव, निकस कह जाइ है । 
हरि हाँ बाजींद, बालम बिछुरै, बीर मुवा कह आइ है ॥ 
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*विरही विरह लक्षण*
*जिस घट इश्क अलाह का, तिस घट लोही न मांस ।*
*दादू जियरे जक नहीं, ससकै सांसैं सांस ॥५७॥* 
टीका - सतगुरु महाराज कहते हैं कि हम विरहीजन भक्तों को परमेश्वर की अप्राप्ति रूपी दु:ख है । उस दु:ख से हमारे विरहीजनों के शरीरों में ईश्वर का प्रेम व्याप्त हो रहा है । उस विरह के दु:ख ने हमारे शरीर का खून जला दिया है और माँस को सुखा दिया है, केवल हडिड्यों का पिंजर मात्र रह गया है और श्वास-श्वास के अंदर प्रभु दर्शनों के लिए हम सिसक रहे हैं अर्थात् विलाप कर रहे हैं । हमारे शरीर आदि की हमें कुछ सुध-बुध नहीं है ॥५७॥ 
रक्त मांस सब गल गया, हाड रहे अरु चाम ।
सो पुनि त्यागे विरहनी, 'जगजीवन' भजि राम ॥ 
लोही लोभ न देखिये, मांस ममत्व नहिं कोई । 
रात दिवस रटिबो करो, विरहीजन जे होइ ॥ 
लोही, मांस सरीर में रती न छोडयो रांड । 
अब सौं बिरहा स्वान ह्वै, चाबत सूके हाड ॥ 
अरिल छंद :-
पक्षी एक संदेश, कहो उस पीव सूं । 
विरहनी है बेहाल, जायगी जीव सूँ ॥ 
सींचनहार सुदूर, सूख भई लाकड़ी । 
हरि हां, बाजींद घरही में बन कियो, वियोगनी बापड़ी ॥
(क्रमशः)

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