रविवार, 21 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१५४-६)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह पतिव्रत*
*बाट विरही की सोधि करि, पंथ प्रेम का लेहु ।* 
*लै के मारग जाइये, दूसर पांव न देहु ॥१५४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! विरह की कसौटी को निश्चय करके के वल प्रेम का ही पंथ कहिए, मार्ग ग्रहण करो । अन्य जो बहिरंग साधन हैं, उन सबसे उदासीन होकर, अपनी सुरति को परमेश्वर के स्वरूप में ही लगाइये ॥१५४॥ 
छंद :-
होइ अनन्य भजै भगवंत ही, 
और कछु उर में नहिं राखै । 
देवी रू देव जहाँ लग है, 
डर के तिन सौं कहुँ दीन न भाखैं । 
योग रू यज्ञ व्रतादि क्रिया, 
तिन को तो नही स्वप्ने अभिलाषै । 
सुन्दर अमृत पान कियो तब, 
तो कहु कौन हलाहल चाखै ॥ 
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*बिरही बेगा भक्ति सहज में, आगै पीछै जाइ ।* 
*थोड़े माहीं बहुत है, दादू रह्या ल्यौ लाइ ॥१५५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के दर्शन करने की व्याकुलता का जो भाव है, सो विरहीजनों को प्राप्त है । उससे परमेश्वर के दर्शन विरहीजनों को अवश्य होते हैं । और जो नवधा भक्ति है, वह तो सुख दु:ख आदि द्वन्द्वों से मुक्त करके सहजावस्था द्वारा परमेश्वर का दर्शन कराती है । परन्तु विरह - भावना रूप भक्ति तो, तुरन्त ही परमेश्वर का साक्षात्कार कराती है । और विरह तो अल्प समय(थोड़े समय) में होवे तो भी बहुत होता है अथवा विरहीजन भक्तों का जीवन थोड़े ही काल रहता है, परन्तु उसमें ही उनको बहुत जीवन प्रतीत होता है । इसलिए परमेश्वर के नाम - स्मरण रूप लय में विरहभाव से स्थिर रहिये ॥ १५५ ॥ 
विरह रस पावत विरह में बिना मरि जाय । 
ज्यों चूने का कांकरा, रज्जब जल मिल जाय । 
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*बिरहा बेगा ले मिलै, तालाबेली पीर ।* 
*दादू मन घाइल भया, सालै सकल सरीर ॥१५६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह विरह - बाण का स्वरूप है, जिसके लगने से सारा शरीर कहिये, रोम-रोम घायल हो जाता है अर्थात् रोम-रोम में वह विरह दर्द की चोट सालती(महसूस) रहती है । और ताला - तलब और बेली - विलाप के सहित विरहीजन पुकारते रहते हैं । जिससे बिरही मन परमेश्वर के दर्शनों के लिए व्याकुल रहता है । किन्तु वह विरह, विरहीजनों को कहिये, भक्तों को साथ लेकर शीघ्र ही परमेश्वर में अभेद कर देता है ॥१५६॥
(क्रमशः)

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