रविवार, 10 फ़रवरी 2013

= चितावणी का अंग =(१/१०-१२)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= चितावणी का अंग ९ =*
*आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग ।*
*दादू अवसर जात है, जाग सकै तो जाग ॥१०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अहंता, ममता का त्याग करके, अपना पराया इस भाव को भी छोड़कर राम नाम के स्मरण में अपनी वृत्ति स्थिर करिये, क्योंकि मनुष्य जीवन और नर तन रूपी अवसर व्यर्थ जा रहा है । इस प्रकार अज्ञान निद्रा से शीघ्र जागकर स्वस्वरूप का बोध करो ॥१०॥ 
अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् । 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ 
बणिक चल्यो सुत मिलन को, मिल्यो बीच एक गांव । 
रात्रि दरद सुत कै चल्यौ, रात्रि न लीनो नांव ॥ 
दृष्टांत - एक बणिये का लड़का विदेश गया । कारोबार करने लगा । अच्छी कमाई कर ली । पिता को पत्र लिखा, आप यहाँ आ जाओ । पिता ने पत्र लिखा, तुम यहाँ आओ, सब कुटुम्बी आपको याद करते हैं । फिर पिता ने यह सोचा कि मैं ही चलकर मिलूं । उसका काम बहुत बड़ा है । तब पुत्र से मिलने चल पड़े । उधर पुत्र सपरिवार अपने देश को रवाना हो गया । एक शहर की धर्मशाला में नौकर - चाकरों सहित आकर ठहरा । सायंकाल अकेला उसका पिता भी उसी धर्मशाला की एक कोठड़ी में आकर ठहर गया । रात्रि को लड़के के पेट में भारी दर्द हो गया । शहर के वैद्य डाक्टर आने लगे । दवाइयाँ देते हैं, परन्तु आराम कुछ भी नहीं आता । लड़का पुकारता था, "हाय मरा ! हाय मरा ! हाय मरा !" वह कोठड़ी में सोया - सोया कहता रहा, "कैसा दुष्ट है यह ? सारी रात हो गई, सोने भी नहीं देता । दुष्ट मरा - मरा कहता है और मरता भी नहीं है ।" इतने में ही वह मर गया और बड़ा भारी रोना शुरू हो गया । तब बनिया बैठा हो गया और बोला - "अब सुसरे का रोग कट्या सै । पूछूं तो सही, कौन है ? कहाँ का है ?" बनिया आकर बोला - "क्यों भाई यह कहाँ का था ? और इसका नाम क्या है ?" तब नौकरों ने बताया कि यह अमुक नाम का, अमुक गांव का सेठ था । यह अपने मां - बाप से मिलने जा रहा था । यह सुनकर बनिया, ऊंचे हाथ कर, "हाय बेटा ! हाय बेटा !" रोने लगा । मुझे क्या पता था कि तूं मेरा ही बेटा है । सतगुरुदेव कहते हैं "आपा पर सब दूर कर." अर्थात् अपना और पराया का भेद न होता तो वह पुत्र से मिल लेता ।
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*बार बार यह तन नहीं, नर नारायण देह ।*
*दादू बहुरि न पाइये, जन्म अमोलिक येह ॥११॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मनुष्य का जन्म बार - बार प्राप्त होना असम्भव है । इसको प्राप्त करके परमेश्वर के भजन द्वारा परोपकार आदि साधनों से सफल बनाओ, क्योंकि यह नर तन अमूल्य है । इससे परमेश्वर की भक्तिरूप अमूल्य कार्य ही करो ॥११॥ 
दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुर: । 
तत्राSपिदुर्लभं मन्ये वैकण्ठप्रियदर्शनम् ॥(भागवत)
नर तन पहला द्वार, मुक्ति के धाम का । 
नर तन में हो ज्ञान, यथार्थ राम का ॥ 
रज्जब रत्नों से जरी, मानौं मानुष देह । 
रे नर निर्धन होइगा, चौरासी के गेह ॥ 
जो जानहु जीव आपना, करहु जीव की सार । 
जियरा ऐसा पाहुना, मिले न दूजी बार ॥ 
रेखता - 
अजाजील रान्या न मान्या सिदक मोहम्मद का, 
जैसा जो करेगा बन्दा तैसा सोई पावैगा ।
भावै नेकी भावै बदी राह पै चले है कोई, 
दिल का बाप पूत न बँटावेगा ।
बोवेगा जो सावक, धतूरा, कोदौं, और ज्वार, 
भिनवा कलौंजी कोई खाता न भरावेगा ।
"खेमदास" फना है जहान, जान जान देख, 
जानेगा फहीम कोई गाफिल ठगावेगा ॥ 
उड़ै कपूर हि देख, सो न कर क्यूं ही आवै । 
क्षितिया परे समन्द, सोधि किस विधि पावै ॥ 
कदली एकै बार, फूल फल होइ सु होई । 
कागद ऊपर आँक, दूसरे लिखै न कोई ॥ 
सती सिंगार सु एकहि, ओला गले न पाइये । 
त्यूं "रज्जब" मनिषा जनम, हरिभज ठौर सुलाइये ॥ 
साखी
कबीर मानषा देही दुर्लभ, देही न बारंबार । 
तरवर तैं फल पड़ै, बहुरि न लागै डार ॥ 
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*एका एकी राम सों, कै साधु का संग ।*
*दादू अनत न जाइये, और काल का अंग ॥१२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस मनुष्य शरीर में अब नाम - स्मरण द्वारा राम से ओत - प्रोत हो जाओ और साधु जो सज्जन पुरुष हैं, उनका संग करो, आदर्श अपनाओ । इसके अतिरिक्त जो कुछ माया - प्रपंच है, वह काल का ही स्वरूप है, उसमें आसक्ति न करो ॥१२॥ 
संगः सर्वात्मना त्याज्य: स चेत् त्यक्तुं न शक्यते । 
स: सद्भि: कर्तव्य: सतां संगो हि भेषजम् ॥(भागवत)
सत संगति हरि नाम बिन, नर कर्म बंधन हेत । 
जन हरि संग न त्यागिये, काल कँवल कर लेत ॥ 
छन्द - 
देह सनेह न छाड़त है नर, 
जानत है थिर है यह देहा । 
छीजत जात घटै दिन ही दिन, 
दीसत है घट को नित छेहा ।
काल अचानक आइ गहै कर, 
ढाइ गिराइ करै तन खेहा । 
"सुन्दर" जानि यह निश्चय धर, 
एक निरंजन सौं कर नेहा ॥ 
(क्रमशः)

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