रविवार, 10 फ़रवरी 2013

= चितावणी का अंग =(१/७-९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= चितावणी का अंग ९ =*
*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं करि चित्त ।*
*यह अनहद जहाँ थैं ऊपजै, खोजो तहाँ ही नित्त ॥७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अज्ञान में अचेत नहीं रहना । व्यापक चैतन्य के सन्मुख होकर अपने चित्त को उसी में लगाओ । अर्थात् जहाँ थैं कहिए, नाभि स्थान से अनहद शब्द उठता है और हृदय में आकर सुनाई पड़ता है, वहाँ हृदय स्थान में "खोजो", कहिए सुनो, इसका विचार करो । वहीं परमेश्वर के ज्ञान का साक्षात्कार होगा ॥७॥ 
छन्द - 
बालू के मंदिर मांहि, बैठो रहे स्थिर होइ, 
राखत है जीवन की, आशा कितै दिन की ।
पल पल छीजत, घटत जात घरी घरी, 
बिनसत बेर नहीं, खबर न छिन की ।
करत उपाय झूठे, लेन देन खान पान, 
मूसा इत उत फिरै, ताक रही मिनकी ।
सुन्दर कहत मेरी मेरी कर भूल्यो सठ, 
चंचल चपल माया, भई किन किन की ॥ 
मूसा(चूहा) = मन । मिनकी(बिल्ली) = काल । हे मन ! अचेतपने को छोड़ दे । विचार कर चैतन्य में स्थिर हो जा ।
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*दादू जन ! कुछ चेत कर, सौदा लीजे सार ।*
*निखर कमाई न छूटणा, अपने जीव विचार ॥८॥* 
टीका - हे जिज्ञासु ! कुछ चेत कर । मनुष्य जीवन के अमोलक श्वासों को परमेश्वर के स्मरण में विचारपूर्वक लगाकर सार्थक व्यवहार कीजिए । हे जीव ! तूं अपने आत्मस्वरूप को प्रत्यक्ष करके मनुष्य - जीवन को सफल बना ॥८॥ 
पुण्य भजन जग सार दोय, जे काहू तैं होइ । 
"जगन्नाथ" इन दोइ बिन, नर जन या ले रोइ ॥ 
बड़ी हानि हरि बिसरिये, लाभ भजन हरि नाम । 
"जगन्नाथ" ता जन्म को, नर खरचत बेकाम ॥ 
सवैया - 
पाइ अमोलिक देह यह नर, 
क्यूँ न विचार करै दिल अन्दर । 
कामहु क्रोधहु लोभहु मोहहु, 
लूटत हैं दशहु दिशि द्वंद्वर ।
तूं अब वांछित है सुरलोक हि, 
कालहु पाँय, परै सु पुरंदर । 
छाड़ि कुबुद्धि सुबुद्धि हृदय धर, 
आत्मराम भजै क्युं न सुन्दर ॥ 
एक फकीर घर गार के, बेचत है परलोक । 
सेठ मुओ सक्का मिल्यो, देखे सब ही थोक ॥ 
दृष्टांत - एक नगर में एक संत रहते थे । उनके यहाँ संतों की एक जमात आ गई । विचार किया कि इनको भोजन होना चाहिए । किसको बोलें ? तब मन में विचार हुआ, तो बैठे - बैठे एक लकड़ी के पट्टे पर गीली मिट्टी लेकर सात मंजिल का मकान बनाया । कई वृक्षों की डालियाँ लेकर बगीचा लगा दिया । प्रातःकाल सिर पर रखकर गांव की ओर चले । आवाज लगाने लगे - "परलोक के लिए यह महल और बगीचा सस्ती ही कीमत पर खरीद लो" । कई लोग देखकर हँसने लगे । उस नगर में एक धर्मात्मा साहुकार रहता था । वह संत के पास जाया भी करता था । उसने सब आवाज सुनी तो मुनीम को बोला - गद्दी पर महाराज को बिठाओ । सेठ ने आकर नमस्कार किया, पूछा - महाराज यह क्या है ? महात्मा - परलोक के लिए बगीचा और मकान है । सेठ - क्या कीमत है ? महात्मा - पांच सौ रूपया । सेठ ने पांच सौ रूपया दे दिया और मकान बगीचा ले लिया । महात्मा ने जाकर पांच सौ रूपया संतों के बीच में डाल दिया और बोले - "इन्हीं रूपयों में आप सब कुछ भंडारा - भेंट पूजा समझ लेना ।" संतों ने रसोई बनाई, परमेश्वर के भोग लगाया, प्रसाद पाया और रम गए । कुछ दिन में सेठ का अन्तिम समय आ गया । परन्तु सेठ के पड़ौसी का भी वही नाम था, जो कि सेठ का था । यमराज ने यमदूतों को हुक्म दिया कि उसके लिंग शरीर को यमलोक में ले आओ । यमदूत नाम की समानता होने के कारण धर्मात्मा के लिंग शरीर को ले गए । यमराज देखकर बोले - "किसको ले आए ? यह नहीं, इसके पड़ौसी को लाओ और इसको वापिस इसके स्थूल शरीर में ले जा कर डालो ।" तब यमदूत इसको लेकर चले, तो रास्ते में एक छोटा सा बगीचा, सात मंजिल का मकान, कुआ वगैरा सेठ ने बनते देखे । पानी ले जाने वाले, सक्का को पूछा - "यह मकान बगीचा किसका है ?" वह बोला - "मृतलोक में अमुक नाम के शहर में अमुक नाम का साहुकार रहता है, वह सपरिवार इसमें आकर बसेगा । उसने एक संत से बगीचा, मकान मोल लिया था । उसी के फलस्वरूप में यह बन रहा है ।" सेठ ने निश्चय किया कि वह तो मैं ही हूँ । यमदूतों ने सेठ के लिंग शरीर को स्थूल शरीर में लाकर डाला । चैतन्य हो गया । उपरोक्त वार्ता, सेठ ने सब अपने कुटुम्ब को बताई । पुण्य और संत सेवा की महिमा सुनकर उत्तम पुरूषों ने धन्य - धन्य किया । यह खरी कमाई है ।
संत एक सुकृत करै, माथै ले ले दाम । 
एक अनाथ सुत बणिक को, हुंडी बरसाई राम ॥ 
दृष्टांत - एक नगर में संत रहते थे । वे बड़े उपकारी थे । अन्न, वस्त्र, जल से अतिथियों की सेवा किया करते थे । वहाँ एक बनिये का लड़का था । उससे सामान उधार ले आते थे । जब पैसा आता, तो उसको दे दिया करते थे । एक रोज संत आ गए । बनिये के पास गए और बोले - "सामान देओ, भोजन के लिए ।" बनिये ने कहा - "महाराज पैसा आपकी तरफ काफी हो गया है । देने की कृपा करें ।" संत बोले - "आज तेरे धन की हुंडी बरसेगी ।" इस बात को पड़ौस के लखपति साहुकार ने सुना । वह आकर उस बनिये के लड़के को बोला - "सौदा कर ले ।" लड़का बोला - काहे का ? सेठ बोले - अपने घर मकान जायदाद का । लड़का बोला - "लिखतम् पढतम् कर लो ।" सेठ ने पांच आदमियों में लिखतम् पढ़तम् कर दी - "अपना घर, गद्दी, दुकान, सब जायदाद मैंने राजी खुशी अमुक लड़के को दे दिया, बदले में इसका घर, दुकान जायदाद, सब से लिया ।" इस पर दोनों के हस्ताक्षर हो गए । सेठ घर पर गया । उसके सारे कुटुम्ब को जिस हालत में थे, उसी हालत में साथ लेकर लड़के के घर और दुकान में आ गए । लड़का अपनी बुढिया मां, अपनी स्त्री आदि को साथ लेकर सेठ के घर गद्दी पर चला गया । दुनियां हँसने लगी । सेठ के परिवार के सदस्य कहने लगे - क्या आपकी बुद्धि खराब हो गई है ? इस झौपड़ें में आकर बैठ गए और सारी सम्पत्ति उसको दे दी । सेठ बोले - अरे मूर्खो ! हुंडी बरसेगी, न मालूम कितनी सम्पत्ति मिल जाएगी । सारा दिन पूरा हो गया । हुंडी नहीं बरसी । सेठ आँखें फाड़ - फाड़ कर आकाश में देखने लगा । फिर शाम को विचार किया कि यदि रात को धन बरसा, तो छप्पर पर से इधर उधर लुढक जाएगा और गांव वाले उठा ले जाएँगें । तब पूर्वोक्त बात अपने घर वालों को बताई और सब लोगों ने हाथों में डंडे लिये और छप्पर के अन्दर मोटे - मोटे छेद कर दिये । सारी रात सारा कुटुम्ब झाँकता रहा । सवेरा होते ही, सारा कुटुम्ब ऊँचे - ऊँचे हाथ करके फूट - फूट कर रोने लगे । सेठ संत के पास गया, और गालियां देने लगा "हुंडी तो नहीं बरसी मोड़े ! तूं कहता था हुंडी बरसेगी ! हमको तूने लुटा दिया ।" संत बोले - "आपको भाई, हमने कब बोला था ? जिसको बोला था, उसको तो बरस गई ।" सेठ लज्जित होकर आ गये और दुकान में चने मूंगफली बेचने लगे ।
साधु बोले सहज सुभाइ, साधु का बोल्या वृथा न जाइ । 
दादू जन कुछ चेत कर सौदा लीजी सार ॥ 
सुभाइ = स्वभाव
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*स्मरण नाम चितावणी*
*दादू कर सांई की चाकरी, ये हरि नाम न छोड़ ।*
*जाना है उस देश को, प्रीति पिया सौं जोड़ ॥९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ईश्वर की नाम - स्मरण रूप सेवा करो । गुरुदेव, विद्वान्, दीन - दुःखी आदि की निष्काम भाव से सेवा करो और "हे हरि ! हे दयालु !' इस प्रकार नाम का स्मरण सदैव करते रहो, क्योंकि ब्रह्म अवस्था में स्थित रहना है, तो उस परब्रह्म परमात्मा से जो मुख - प्रीति का विषय है, उससे अपनी प्रीति के सहित अन्तर्वृत्ति जोड़ो ॥९॥ 
(क्रमशः)

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