*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*प्रेम पियाला राम रस, हमको भावै येहि ।*
*रिधि सिधि मांगैं मुक्ति फल, चाहैं तिनको देहि ॥८३॥*
टीका - हे प्रभु ! हमारे को तो कहिए, आपका निष्काम पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले भक्तों के लिए तो आपकी प्रेमा - भक्ति रूप रस से परिपूर्ण प्रेम का प्याला पिलाइये, यही एक हमारी प्रार्थना है । नौ निधि, आठ सिद्धि, चार प्रकार की मुक्ति और चार फल, इनकी जिनको इच्छा लगी है, उनको देओ । हमारे तो इनकी कोई इच्छा नहीं है ॥८३॥
छन्द -
नीर बिन मीन दुखी, क्षीर बिन शिशु जैसे,
पीर जाके दवा बिन कैसे रह्यो जात है ।
चातक जू स्वाति बूंद, चंद को चकोर जैसे,
चंदन की चाह करि सर्प अकुलात है ॥
नीधन ज्यूँ धन चाहै, कामिनि कूं कंत चाहै,
ऐसी जाके चाहि ताहि कछू न सुहात है ।
प्रेम को प्रभाव ऐसो, प्रेम तहाँ नेम कैसो,
"सुन्दर" कहत यह प्रेम ही की बात है ॥
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*कोटि वर्ष क्या जीवना, अमर भये क्या होइ ।*
*प्रेम भक्ति रस राम बिन, का दादू जीवन सोइ ॥८४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ईश्वर से विमुख रहकर, कोटि वर्ष जीकर, अमर होने से भी हमको क्या लाभ है ? क्योंकि प्रेमाभक्ति रूप राम - रस का पान किये बिना यह मनुष्य जीवन वृथा ही जा रहा है । वह एक क्षण भी हमारा सफल है, जो प्रेमाभक्ति में बीतता है ॥८४॥
जीवनं विष्णुभक्तस्य वरं पंच दिनानि च ।
न तु कल्पसहस्त्राणि, भक्तिहीनस्य, केशव ॥
"पलक एक जीवन भला, प्रकट सु परसे राम ।
कोटि वर्ष क्या जीवना, बिन दर्शन बेकाम ॥
करडाले स्वामी रहे, तहाँ एक आवत प्रेत ।
पूछी प्रभु "मैं ग्वाल हो, बड़ी आयु वर लेत" ॥
दृष्टांत - ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज जब करडाले पहाड़ में निवास करते थे । वहाँ रात्रि को महाराज के सामने एक प्रेत आकर नाना प्रकार की चेष्टाएँ दिखाने लगा । गुरुदेव बोले - तू पूर्व जन्म में कौन था ? वह बोला - महाराज मैं ग्वाल था और संतों का सेवक था । गुरुदेव बोले - संतों का सेवक तो प्रेत नहीं होता है । प्रेत बोला, महाराज ! मेरे यहाँ एक संत आये, मैंने उनकी खूब सेवा की । वे प्रसन्न होकर बोले - मांग क्या चाहता है ? मैंने कहा - मेरी हजार वर्ष की उम्र कर दो । संत बोले - इस जन्म में तो नहीं, अगला जन्म तुम्हें हजार वर्ष की आयका मिल जाएगा । इसी से मुझे यह प्रेत योनि प्राप्त हो गई । ब्रह्मऋषि बोले - देखो, सकाम सेवा करने से दुःख हुआ । प्रेत बोला - अब मैं आपकी शरण हूँ, मेरा उद्धार करो । गुरुदेव ने अपनी झारी में से जल लेकर "सत्यराम" बोल कर छींटे मारे, प्रेत का शरीर छूट गया और दिव्य रूप होकर परम गति को प्राप्त हो गया ।
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*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।*
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥८५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! किसी प्रकार की भी कामना नहीं करना, क्योंकि कामना दुःख देने वाली होती है,चाहे सगुण की हो या निर्गुण की हो । जीव से पलट कर ब्रह्मगति को प्राप्त हो जावें और सब कोई हमारी मान प्रतिष्ठा करें, ये सभी कामनाएँ दु:ख देने वाली हैं । निष्काम पतिव्रत - धर्म धारण करनेवाले भक्त, इन सबसे अलग रहते हैं और प्रभु में गद्गद् बने रहते हैं ॥८५॥
(क्रमशः)
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