*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*जनि बाझैं काहू कर्म सौं, दूजै आरंभ जाइ ।*
*दादू एकै मूल गहि, दूजा देइ बहाइ ॥५८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! किसी भी सकाम कर्म में अपनी वृत्ति को नहीं लगाना, क्योंकि सकाम कर्म बन्धन - कारक होता है । जो चैतन्य ब्रह्म से अलग है, वह सब कार्य विनाश होने वाला है । सर्व का मूल एक परमेश्वर है, उसमें लय लगाकर रहो और दूजी संसार की वासना, द्वैतभाव, इन सबका त्याग करो ॥५८॥
राम नाम निज छाड़ कर, कीजे आन धर्म ।
ज्यों पारस बिन लोह का, कदे न कट ही कर्म ॥
छन्द -
जो हरि को तजि आन उपासत,
सो मति मन्द फजीहति होई ।
ज्यूं अपने भरतार हि छाड़ि,
भई व्यभिचारिनि कामिनि कोई ।
सुन्दर ताहि न आदर मान,
फिरै विमुखी अपनी पत खोई ।
बूड़ि मरै किन कूप मंझार,
कहा जग जीवत है सठ सोई ॥
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*बावें देखि न दाहिने, तन मन सन्मुख राखि ।*
*दादू निर्मल तत्व गह, सत्य शब्द यहु साखि ॥५९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! "बावें" - मृत्यु लोक के भोग, स्त्री, धन, पुत्र और "दाहिने" - स्वर्ग के ऐश्वर्य सुख; इन सबसे उदास होकर परमेश्वर में ही अपने तन - मन की अखंड लय लगाओ और कनक - कामिनी में कभी भी आसक्त नहीं होना । अपने तन - मन को चैतन्य परमेश्वर में स्थिर रखना ॥५९॥
कबीर कनक अरु कामनी, विष फल कीये उपाइ ।
देखे ही तैं विष चढ़े, खावे सो मर जाइ ॥
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*दादू दूजा नैन न देखिये, श्रवणहुँ सुने न जाइ ।*
*जिह्वा आन न बोलिये, अंग न और सुहाइ ॥६०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया और माया के कार्य को नेत्रों से सत्य करके नहीं देखना, परमेश्वर को ही सत्य करके देखो । श्रवण इन्द्रिय से सांसारिक वार्ताएँ नहीं सुनना, परमेश्वर के गुणानुवाद श्रवण करना । अपनी जिह्वा से परमेश्वर के नाम का ही स्मरण करना, दूसरे का यश नहीं गाना । अपने शरीर में परमेश्वर से और सतगुरु से अलग और किसी का स्पर्श नहीं करना । परमेश्वर के अनन्य भक्तों को परमेश्वर के सिवाय और दूसरा कोई प्रिय नहीं लगता है ॥६०॥
चकोर कुरंग चातक रू मीन ।
नैन श्रवण रसन तन व्रत लीन ॥
जैसे चकोर की मुख्य - प्रीति चन्द्रमा से ही है, ऐसे ही मृग की मुख्य - प्रीति बरवा राग से है । चातक पपैया की मुख्य - प्रीति स्वाति नक्षत्र की बूंद से है और मछली की मुख्य - प्रीति जल से है । इन सबका उपरोक्त पदार्थों के साथ ही पतिव्रत है । ऐसे ही अनन्य भक्तों का परमात्मा के साथ पतिव्रत है ।
छन्द -
पूरण काम सदा सुखधाम,
निरंजन राम सु सृजनहारो ।
सेवक होइ रह्यो सब को नित,
कीट हि कुंजर देत अहारो ।
भंजन दुःख दरिद्र निवारण,
चिन्त करै पुनि साँझ सकारो ।
ऐसो प्रभु तज आन उपासत,
सुन्दर ह्वै तिनको मुख कारो ॥
(क्रमशः)
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