॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मन का अंग १० =*
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*यहु मन अपना थिर नहीं, कर नहीं जानै कोइ ।*
*दादू निर्मल देव की, सेवा क्यों कर होइ ॥९१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारिक जन इस मन को स्थिर तो कर नहीं जानते । मन स्थिर तो निष्काम कर्म, निष्काम धर्म, निष्काम योग आदि साधनों से होता है । संसारीजन सकाम कर्मों में लगकर अनेक प्रकार के देवी - देव, भैरूं - भूत आदि की उपासना करते हैं । उन लोगों द्वारा उस शुद्ध, माया आदि मल रहित दिव्यस्वरूप निरंजन देव की आराधना नाम भक्ति, "क्यों कर होइ" - कैसे हो सकती है ?
सेवा नर की नर करै, चौपद करै न कोइ ।
सादृश तैं सुख होत है, ‘जगन्नाथ’ जग जोइ ॥
मन मैला, हरि ऊजला, सेवा किमि कराइ ।
'जगजीवन’ मन शुद्घ ह्वै, तब ही गोविन्द गाइ ॥
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*दादू यहु मन तीनों लोक में, अरस परस सब होइ ।*
*देही की रक्षा करैं, हम जनि भींटै कोइ ॥९२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! शरीरधारी संसारिक जन, शरीर की पवित्रता और आचार - विचार का नाना प्रकार से विचार करके लोक - व्यवहार में छूआछूत का भाव दर्शाते हैं अर्थात् आडम्बर करते हैं । परन्तु यह मन त्रिलोकी में अच्छे बुरे नीचे - ऊँचे, सभी पदार्थों के साथ ओत - प्रोत होकर बर्ताव करता है । इस मन की स्थिति पर कोई संसारीजन ध्यान नहीं देते, बल्कि शास्त्रों का अध्ययन करने वाले पंडित भी इस मन को निषिद्ध वासनाओं से निग्रह नहीं कर पाते ॥९२॥
आसा तृष्णा चूहड़ी, काम क्रोध चांडाल ।
इन ऊपर चौका फिरै, तो सांचो आचार ॥
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*दादू देह जतन कर राखिये, मन राख्या नहीं जाइ ।*
*उत्तम मध्यम वासना, भला बुरा सब खाइ ॥९३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारिक लोग शरीर को अनेक साधनों की कसौटी दे - देकर कस लेते हैं, परन्तु मन को काबू में नहीं कर पाते । मन तो भला - बुरा, उत्तम - मध्यम सभी पदार्थों को संकल्पों के द्वारा भोगता रहता है । इसलिए शरीर की अपेक्षा मन को ही वश में करके रखना चाहिये । यह मन ही मनुष्य से अनर्थ करा देता है ॥९३॥
काया कसणी अनंत विधि, दे दे देही दंड ।
‘सुन्दर’ मन भाग्या फिरै, सप्त द्वीप नौ खंड ॥
सूरसेन पूजा करै, पीपै पूछी आइ ।
जीन करावत मूढ़ तहां, मोची के घर जाइ ॥
दृष्टान्त - १ - टोडा रायसिंह के राजा सूरसेन थे । उन्होंने पीपाजी महाराज से उपदेश ग्रहण किया था । बहिरंग लोगों के कहने से गुरुदेव पीपा जी महाराज में उसने श्रद्धा कम कर ली । पीपा जी महाराज ने विचार किया कि यह गुरु में अश्रद्धा करके नरक में जाएगा । इसलिये इसको उपदेश करना चाहिए । यह विचार कर महाराज राजभवन में आये । द्वारपाल पीपाजी से बोला कि राजा साहब की आज्ञा है कि कोई भी हमारी आज्ञा के बिना, अंदर न आने पावे । महाराज बोले - जाओ, उससे कह दो कि गुरु महाराज आये हैं । सूरसेन बोला - "बोल दो, अभी भगवान् की पूजा कर रहे हैं । ठहरो ।" द्वारपाल आकर बोला - राजा जी भगवान् की पूजा कर रहे हैं, आप ठहरो । उस समय पीपाजी महाराज ने अन्तर्वृत्ति होकर सूरसेन के मन को देखा कि चमारों के यहां घोड़े की जीन सिलाने का विचार कर रहा है । उस समय राजा हाथों से तो भगवान् की पूजा कर रहा था और मन में यह संकल्प करता था कि मेरे घोड़े की जीन फट गई, अभी पूजा के बाद मोची को बुलाकर जीन ठीक कराऊँगा । तब पीपा जी महाराज ने बाहर से आवाज दी " मूर्ख ! क्या पूजा करता है ?" मन तो चमारों के यहां जीन - तोबरे सिला रहा है ?" यह सुनते ही राजा पूजा छोड़कर दौड़ा । पीपा जी महाराज के चरणों में नमस्कार किया और अपना अपराध क्षमा कराया । यही ब्रह्मऋषि सतगुरु कहते हैं कि "देह जतन करि राखिये, मन राख्या नहीं जाइ." संसारिक पुरुषों से ।
शश चकोर मिल मीनि पै, गये करावन न्याव ।
ध्यान खोल नेरे लिये, खाये करके डाव ॥
दृष्टान्त - २ - एक(शश) खरगोश और चकोर में विवाद हुआ । खरगोश कहता है कि मैं भारी हूँ और चकोर अपने को भारी बताता था । उसी समय उन दोनों ने एक आँख मूँदे बिल्ली को देखा और सोचा कि वह कोई महात्मा है, हमारा न्याय कर देगी । उसके पास गये और अपने विवाद की बात बताई तो उसने अपनी आँखे खोलकर कहा - मेरे पास आओ, मैं तुमको बराबर कर दूँगी । खरगोश को भारी बताकर उसका माँस तोड़ खाया । फिर चकोर को भारी बताकर उसका माँस तोड़ खाया । इस प्रकार वह उनका बारी - बारी से माँस खाती जाती है । दार्ष्टान्त - बिल्ली ने शरीर को ध्यानस्थ कर रखा था, परन्तु मन तो दूसरों को मारने के विचार में ही लगा था । उक्त प्रकार का साधन भगवत् प्राप्ति का साधन नहीं हो सकता । तभी महाराज ने कहा है - "देह जतन कर राखिये, मन राख्या नहिं जाइ ।"
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