मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

= मन का अंग १० =(९४/९६)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*दादू हाडों मुख भर्या, चाम रह्या लिपटाय ।*
*मांहैं जिभ्या मांस की, ताही सेती खाइ ॥९४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हाड़ - चाम - मांस आदि के बने हुए इस शरीर की निर्मलता, नाना आचार से और बहिरंग विचार से सम्भव नहीं है, क्योंकि विचार कर देखें तो भान होता है कि यह बना हुआ ही ऐसी चीज का है और इसके अन्दर हैं भी वही मलीन चीजें । स्त्री के मलिन रज का यह पिंड बना है, फिर नाक में बलगम भरी है, मुख में हाड भरे हैं, मांस की जिह्वा का टुकड़ा लगा है । पवित्र से भी पवित्र पदार्थों को मुँह से ग्रहण करके गन्दा बना देता है । ऐसे शरीर की पवित्रता, लौकिक उपाय से होना तो असम्भव ही है ॥९४॥ 
मत्तगयन्द
हाड को पिंजर चाम मढयो तन, 
मांहि भरयो मल मूत्र विकारा । 
थूक रु लार परे मुख तैं पुनि, 
व्याधि वहै सब ओर हु द्वारा ॥ 
मांस की जीभ सूँ खाइ सबै कछु, 
ताहि तैं ताको है कौन विचारा । 
ऐसे शरीर में पैस के ‘सुन्दर’, 
कैसे क होत है शुचि आचारा ॥ 
सा - 
राम श्याम कित होत है, सो गति लहै न गूढ । 
धोय चाम की देह को, शुचि मानत है मूढ ॥ 
देह अपावन है बुरी, मल मूत्रन की खानि । 
अरे आतमा मूढ तू, क्यों नहिं करता ग्लानि ॥ 
तू अविनाशी आतमा, ये जड़ विनशन हार । 
तू ज्ञानी, अज्ञान ये, फिर क्यों करता प्यार ॥ 
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*दादू नौवों द्वारे नरक के, निशदिन बहै बलाइ ।*
*शुचि कहां लौं कीजिये, राम सुमरि गुण गाइ ॥९५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! विचार कर देखें तो, यह शरीर पवित्र है कहां ? इसमें नरक की नौ नदियां हर समय बहती रहती हैं ।(नौ नदियां = दो आंख, दो कान, दो नासिका, एक मुँह, एक गुदा और एक उपस्थ इन्द्रिय) इनमें नरक ही बह रहा है । यह तो शरीर क्या, एक नरक का द्वार है । इसको कहां तक पवित्र बनाओगे ? समय - समय पर ही इसकी शुद्धि ठीक रहती है । इसी के आचार में लगे रहोगे, तो राम से विमुख ही बनोगे । इसलिए यह शरीर तभी पवित्र होगा, जब राम - नाम का स्मरण प्रेमपूर्वक किया जायेगा । इसलिए प्रभु के गुण गाओ ॥९५॥ 
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*प्राणी तन मन मिल रह्या, इंद्री सकल विकार ।*
*दादू ब्रह्मा शूद्र धर, कहां रहै आचार ॥९६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे ब्राह्मण शूद्र के घर में जाकर व्यावहारिक निर्मलता चाहे, तो सम्भव नहीं है, क्योंकि शूद्र के घर में चाम आदि का ही व्यवसाय है । इसी प्रकार मानो यह शरीर ही शूद्र घर है, जिसमें ब्रह्म स्वरूप आत्मा प्रकट होकर के बाहर की पवित्रता चाहे तो, सर्वथा असम्भव है । तन - मन की निर्मलता तब ही जानिये, जब कि यह मन निष्काम, निर्विषय और सहज स्वभाव होकर स्वस्वरूप में स्थिर होवे ॥९६॥
(क्रमशः)

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