*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*चरणहुँ अनत न जाइये, सब उलटा मांहि समाइ ।*
*उलट अपूठा आप में, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥६२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने चरणों से परमेश्वर के मार्ग पर चलना, दूसरे मार्ग पर नहीं जाना । हारिल पक्षी जमीन पर उतरता है तब अपने पंजे लकड़ी पर रखता है, जमीन पर पंजे नहीं टेकता, इसी प्रकार अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को बहिर्मुख साधनों से पलट कर अन्तर्मुख साधनों में लगाओ । सतगुरु महाराज कहते हैं कि भक्तजनों के एक परमेश्वर का ही पतिव्रत होता है, वे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को आत्म - विचार में लगाकर अभेद होते हैं ॥६२॥
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*दादू दूजे अंतर होत है, जनि आने मन मांहि ।*
*तहाँ ले मन को राखिये, जहँ कुछ दूजा नांहि ॥६३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण जगत् में एक ब्रह्म - भावना किये बिना अन्तःकरण में द्वैतभाव व्याप्त होता है और परमेश्वर के पतिव्रत में भी अन्तर पड़ता है(फर्क आता है) । इसलिये देह अध्यास और माया प्रपंच के वश में होकर अपने मन में द्वैतभाव नहीं लाना । सर्व नाम रूप पदार्था में चैतन्य ब्रह्म ही व्यापक हो रहा है, ऐसा निश्चय करो । माया और माया के कार्या को मिथ्या जानकर निर्विशेष, निर्विकल्प, निरुपाधिक ब्रह्म में ही लय लगाओ ॥६३॥
"सुन्दर" आन सराहतां, पतिव्रत लागे खोट ।
बाल सराह्यो रैन का, बँधी न जल की पोट ॥
संत जुड़े परब्रह्म से, नृप आयो दीदार ।
पूछी प्रभु क्यों एकले, अबलौं द्वै बटपार ॥
दृष्टांत - एक संत परमेश्वर के ध्यान में बैठे थे । राजा दर्शन करने आया । दर्शन करके बोला - महाराज ! अकेले ही बैठे हो । संत बोले - अब तक तो दो(सेवक, स्वामी) थे । अब तू तीसरा स्मरण में फर्क डालने वाला बटपारा आ गया ।
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*भ्रम विध्वंस*
*भ्रम तिमिर भाजै नहीं, रे जिय आन उपाइ ।*
*दादू दीपक साज ले, सहजैं ही मिट जाइ ॥६४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने जीव में माया - प्रपंच का ज्ञान, कहिए संसार में सत्य बुद्धि और भ्रान्ति ज्ञान तथा सत्य वस्तुरूप ब्रह्म तत्व का जो अज्ञान है, वह सकाम अनुष्ठान, तीर्थ, व्रत, अन्य देवी - देवताओं की उपासना करने से तिमिर अर्थात् अज्ञान की निवृत्ति नहीं होवेगी, किन्तु सूर्य उदय होने से रात्रि रूपी अंधेरा स्वतः ही नाश हो जाता है । ऐसे ही हृदय में आत्मा का ज्ञान होने पर माया - प्रपंच की भ्रान्ति स्वतः नष्ट हो जाती है । इसलिए निरुपाधिक अद्वैत ब्रह्म का ही पतिव्रत धर्म धारण करिये ॥६४॥
(क्रमशः)
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