*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू सो वेदन नहीं बावरे, आन किये जे जाइ ।*
*सब दुख भंजन सांइयाँ, ताहि सौं ल्यौ लाइ ॥६५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह संसार रूपी दुःख ऐसा नहीं है, जो किसी बहिरंग साधनों से मुक्त हो जावे । हे बावले ! सम्पूर्ण जन्म से मरण पर्यन्त दुःखों का नाश करने वाले तो एक परमेश्वर ही हैं । इसलिए अब तुम अन्तर्मुख वृत्ति होकर परमेश्वर का नाम स्मरण करो । वही सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाला है ॥६५॥
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*दादू औषध मूली कुछ नहीं, ये सब झूठी बात ।*
*जे औषध ही जीविये, तो काहे को मर जात ॥६६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! "औषध मूली" कहिए ऊपर के पत्ते औषध और मूली, कहिए मूल जड़, इनमें जन्म - मरण दुःख को काटने की शक्ति नहीं है । यद्यपि दैहिक दुःख तो काट भी देते हैं, परन्तु चौरासी के दुःख काटने की इनमें ताकत नहीं है । अगर औषध मूली से ही जन्म - मरण रूपी दुःख कट जाय तो फिर कोई भी जन्म - मरण को प्राप्त नहीं होवे । इसलिए जन्म - मरण को काटने वाला तो केवल एक स्वस्वरूप आत्मा का पतिव्रत रूप स्मरण ही है ॥६६॥
बादशाह मरते समय, सब ठाढ़े किये लाइ ।
बैद सूर धन लोग कुल, सभी देखतां जाइ ॥
दृष्टांत - एक बादशाह के पास सन्त गए । बादशाह ने नमस्कार किया । संत बोले - परमेश्वर का नाम स्मरण किया करो, अंत में वही मदद करेगा । बादशाह बोला - मैं यह नहीं मानता, क्योंकि शरीर में रोग होगा, तो मेरे यहाँ डाक्टर वैद्य बहुत हैं । कोई लड़ाई करने आवेगा, तो शूरवीर बहुत हैं । और कोई आपत्ति आएगी, तो धन के खजाने भरे हैं, धन देकर निवारण कर दूँगा । मेरे बहुत परिवार है, वे मुझे सब प्रकार से सहयोग देने वाले हैं । नाम - स्मरण की क्या आवश्यकता है ? महात्मा बोले - ठीक है, अन्त समय में बताऊँगा । जब बादशाह का अन्त समय आया, महात्मा दूरदृष्टि थे, जान गए और बादशाह के पास आ पहुँचे । उपरोक्त सभी साधन बादशाह के पास मौजूद थे । महात्मा को देखकर बादशाह ने नमस्कार किया । संत बोbे - अब तुम जाने वाले हो, जिनका तुम्हें भरोसा था, उनमें से कोई भी तुम्हें नहीं बचा सकेगा प्राण - पिन्ड के दुःख से । बादशाह महात्मा के सामने नतमस्तक हो गया । महात्मा बोले - सर्वशक्तिमान् ईश्वर का नाम स्मरण कर । फिर बादशाह नाम - स्मरण द्वारा ही सद्गति को प्राप्त होगया ।
मरिये तो धन काहे को धरिये, ऊंडा ले ले क्यां न धरिये ॥ टेक ॥
पातसाह ले भर भंडारा । मरतां रती न चाल्यो लारा ।
लीजे दीजे खाजे बांटी । सो आगानैं थारी गांठी ॥
साधां सगला कह्यो पुकार । राम बिना जीव चाल्यो हार ।
'टीला' चेत रु कियो विचार । ताहे तिरत न लागी बार ॥
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*पतिव्रत*
*मूल गहै सो निश्चल बैठा, सुख में रहै समाइ ।*
*डाल पान भ्रमत फिरै, वेदों दिया बहाइ ॥६७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सर्व का कारण मूल एक परमेश्वर है, उसको निज आत्मास्वरूप से जानकर उसमें स्थित हो जाओ । तब तुम परमानन्द स्वरूप में समाओगे और संसारीजन तो डाल - पान रूप देवी - देवताओं की उपासना में लगकर जन्म - जन्मान्तरों में भटकते रहते हैं, क्योंकि वेदों में जो सकाम कर्मरूप वचन हैं, उनको सुना - सुनाकर बहिरंग पंडित लोग अज्ञानियों को बहकाते रहते हैं ॥६७॥
कुंडलिया
लटे पटे दिन काटिये, रहे घास पर सोय ।
छांह न उसकी बैठिये, पेड़ जु पतला होय ॥
पेड़ जु पतला होय, किसी दिन दगा कमावै ।
गहरी चाले पवन, उलट धरती पर आवै ॥
कहै गिरिधर कविराय, छांह मोटे की गहिये ।
डाल पान ख्रि जाय, तब भी छाया में रहिये ॥
(क्रमशः)
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