*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*सो धक्का सुनहाँ को देवै, घर बाहर काढै ।*
*दादू सेवक राम का, दरबार न छाड़ै ॥६७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! घर में पाले हुए कुत्ते को सौ दफा ताड़ना करने से भी वह मालिक का दरवाजा नहीं छोड़ता है, इसी प्रकार राम अपने भक्तों को चाहे कितनी ताड़ना कसौटी देवे, तो भी सच्चे भक्त राम के पतिव्रत में स्थित हुए राम का दरबार(सत्संग या स्मरण) छोड़कर अन्यत्र नहीं जाते, क्योंकि वे जानते हैं कि हमारे स्वामी तो केवल हे राम! आप ही हो । आप को छोड़कर हम किसके आसरे जी सकते हैं ?।६७॥
भावै बरसो स्वाति जल, भावै असम अपार ।
चातक के घन ही सरन, रुचै सु करहि विचार ॥
रहो जु माथो टेक के, गहो कि छाडो हाथ ।
चरन सरन बिन जीव को, और ठौर नहिं नाथ ॥
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*साहिब का दर छाड़ि कर, सेवक कहीं न जाय ।*
*दादू बैठा मूल गह, डालों फिरै बलाय ॥६८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमात्मा का स्वस्वरूप दरबार या सत्संग रूपी दरबार, गुरु के दरबार को छोड़ कर उत्तम जिज्ञासु अन्य दूसरे साधनों में जाकर साधना नहीं करते । वे तो उसका उपादान कारण, आत्म - स्वरूप ब्रह्म को जानकर, कृत - कृत्य रहते हैं । अन्य साधनों में वे क्यों फिरने लगे ? "डालों फिरै बलाय" । उनसे विपरीत संसारीजन देवी - देवताओं की उपासना रूप बलाय को अपनी गले में डालकर जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमते रहते हैं ॥६८॥
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*दादू जब लग मूल न सींचिये, तब लग हरा न होइ ।*
*सेवा निष्फल सब गई, फिर पछताना सोइ ॥६९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब तक वृक्ष के मूल में जल नहीं सींचें, तब तक वृक्ष हरा नहीं हो पाता, क्योंकि डाल पत्तों को सींचने से वे सब गलकर नष्ट हो जाते हैं और फिर वृक्ष ही सूख जाता है तथा वह जो पुरुषार्थ किया था, सब व्यर्थ ही जाता है । दृष्टांत में, हे जिज्ञासुओं ! सबका कारणमूल ईश्वर है, उसकी आराधना त्यागकर अन्य देवी - देवताओं की आराधना करें, तो मनुष्य - देह रूपी वृक्ष सूख जाता है, यानी नष्ट हो जाता है ॥६९॥
कवित्त
अजा कंठ थण को, दुह्यो, चह्यो तब नाहिं दूध पल ।
मृग मरीच दिसि धयो, गयो तब नाहिं नेक जल ॥
शुक सैंबल कर गह्यो, लेय फल रुई अनागत ।
सुपने संपत्ति सुक्ख, भुक्त नाहीं कछु जागत ॥
धूर धान जन भीष कर, नट दरिद्र अंत विधि जिसी ।
अंतकाल निरफल सकल, आन देव सेवा इसी ॥
(क्रमशः)
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