मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/७७-९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*साधू राखै राम को, संसारी माया ।*
*संसारी पल्लव गहै, मूल साधू पाया ॥७७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अनन्य प्रभु भक्त एक परमेश्वर का ही पतिव्रत रखते हैं और संसारीजन सकाम कर्मरूप डाल - पत्तों में ही भ्रमते रहते हैं । संतजन एक पूर्ण ब्रह्म में अखण्ड लय लगाकर एकरस होते हैं ॥७७॥ 
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*आन लगन व्यभिचार*
*दादू जे कुछ कीजिये, अविगत बिन आराध ।*
*कहबा सुनबा देखबा, करबा सब अपराध ॥७८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अव्यक्त, अविनाशी, निराकार की आराधना छोड़कर, जो कुछ वाणी से कहना है, कानों से सुनना है, आँखों से देखना है, कर्मेन्द्रियों से कुछ कर्म करना है, ये सब "अपराध" कहिए, दुष्कर्म हैं(खोटे कर्म) हैं । इनके परिणाम का फल दुःख ही होता है अर्थात् शांति सुख प्राप्त नहीं होता ॥७८॥ 
क्या पंडित क्या मूर्ख, क्या राव क्या रंक । 
जगन्नाथ हरि बिन करै, सौ व्यभिचार कलंक ॥ 
छन्द - 
जो हरि को तज आन उपासत, 
सो मति मंद फजीहत होई । 
ज्यूं अपने भरतार ही छोड़, 
भई बिभचारनी कामिनी कोई ॥ 
सुन्दर ताहि न आदर मान, 
फिरै बिमुखी अपनी पत खोई । 
बूड़ि मरै किन कूप मंझार, 
कहा जग जीवत है सठ सोई ॥ 
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*सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजै आन ।*
*दादू आपा सौंपि सब, पीव को लेहु पिछान ॥७९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर की आराधना से अलग और कोई भी वैदिक या लौकिक कार्य किया जावे, वह सब दुनियावी चतुराई कही जाती है । अनन्य पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले परमेश्वर के भक्त उनमें न फँसकर अपना अनात्म - अहंकार देहाध्यास आदि सम्पूर्ण आपा परमेश्वर के अर्पण करके पीव परमात्मा को पहचान लेते हैं ॥७९॥ 
(क्रमशः)

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