मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/७४-७६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू जब मुख मांहि मेलिये, तब सब ही तृप्ता होइ ।*
*मुख बिन मेले आन दिश, तृप्ति न माने कोइ ॥७४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे भोजन का ग्रास मुख में चबाने से समस्त शरीर तृप्त और पुष्ट होता है और वही ग्रास अन्य इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करें तो किसी की भी तृप्ति नहीं होती, प्रत्युत अंग - भंग और हो जाता है । इसी तरह अपनी अन्तःकरण की वृत्ति को एकाग्र करके पूर्ण ब्रह्म में अखंड लय लगाइये, तो सभी देवी - देवताओं की तृप्ति और नर - तन सफल हो जाता है ॥७४॥ 
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*जब देव निरंजन पूजिये, तब सब आया उस मांहि ।*
*डाल पान फल फूल सब, दादू न्यारे नांहि ॥७५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे वृक्ष के मूल में जल सींचने से वृक्ष के अंग उपांग सभी सींचे जाते हैं । इसी प्रकार एक निर्गुण राम को निज आत्म - स्वरूप जानकर उसकी उपासना करने से देवी - देव की उपासना, तीर्थ, व्रत, दान, पुण्य, यज्ञ, योग आदि सम्पूर्ण साधना उसकी मानो सिद्ध हो गई हैं ॥७५॥ 
यथा तारोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति 
तत्स्कन्धभुजोपशाखा: । 
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां 
तथैव सर्वार्हणयच्युते ज्या ॥ 
(भागवत)
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*दादू टीका राम को, दूसर दीजे नांहि ।*
*ज्ञान ध्यान तप भेष पक्ष, सब आये उस मांहि ॥७६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! एक व्यापक राम की उपासना रूप टीका को हृदय में जिसने धारण कर लिया है, वह राम से अलग अन्य अनात्म - पदार्थों को मान्यता नहीं देते हैं । ज्ञान, ध्यान, तप, भेष, बाना, पक्ष(मत - मतान्तरों की हद), ये सब ही साधनाएँ उस राम की उपासना के अन्तर्गत ही सब सार्थक हो जाती हैं, अर्थात् आ जाती हैं ॥७६॥ 
नागर टीका नाम को, और हि दिया न जाइ । 
बहु मेवा पकवान बहु, सुख होवै मुख खाइ ॥
(क्रमशः)

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