रविवार, 10 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१६/१८)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*दादू माया का बल देख कर, आया अति अहंकार ।*
*अन्ध भया सूझै नहीं, का करि है सिरजनहार ॥१६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया का वैभव देखकर अज्ञानी संसारीजन अति अभिमान को प्राप्त होते हैं, वहीं माया में अंधे अज्ञानी प्राणी विचार से शून्य होकर यह बोलते हैं - "परमेश्‍वर क्या करता है ? हम मनुष्य ही सब कुछ करते हैं । देखो, मनुष्य ने कैसे - कैसे आविष्कार निकाल दिये और निकाल रहा है । ईश्‍वर कहाँ है ? सब कुछ मनुष्य ही है, और ईश्‍वर है भी तो उसका क्या करें ? उसके स्मरण से क्या होगा ?१६॥"
गूजर से गूजरी कहै, पुत्री मम सुत ब्याहि । 
काढ लई माया जबै, बहुरि न भाख्यो ताहि ॥ 
दृष्टान्त - एक गूजरी ने दही दूध बेच - बेच करके पांच सौ रुपये जमा कर लिये और चूल्हे की बेवनी में गाड़ दिये । उसको अति अभिमान हो गया । अपने पति गूजर को भी अंट - संट बोलने लग गई । एक रोज रात्रि को बोलीः - मेरी बेटी जवान हो गई, तैंने आंखें मीच रखी हैं क्या ? इसका ब्याह करने को कोई गूजर का लड़का ढूँढ़, ब्याह करूँगी । गूजर बोला - ब्याह करने को रुपये कहाँ हैं ? गूजरी बोली - माकड़ ! तेरे भरोसे हूँ के ? कमाई करूं सूं । रुपया पांच सौ कमा लिये । गूजर बोला - रुपये कहाँ हैं ? बोली - "राख उड़वा ! चूल्हे की बेवनी में गाड़ रख्यासै ।" एक चोर यह बात सुन रहा था । चोर ने विचार किया, "पूरा ही ठिकाना बता दिया ।" वह तो कहीं इधर - उधर गई, पीछे से चोर आकर बेवनी खोदकर पांच सौ रुपये निकाल कर ले गया । 
गूजरी ने आकर देखा, तो बेवनी खुदी पड़ी थी । गूजरी के शरीर में सन्नाटा मच गया कि रुपया तो कोई काढ़ कर ले गया । गूजर को कुछ भी नहीं बोली । कुछ दिन में गूजर ने विचार किया कि आजकल तो ये छोरी के ब्याह का नाम ही नहीं लेती है । गूजर ने पूछा - आजकल ब्याह करने की बात ठंडी कैसे कर दी ? गूजरी बोली - "कोई रुपये काढ़ ले गया ।" गूजर मन में समझ गया कि अब इसके माया का मद उतर गया है, तभी मीठी - मीठी बोलती है । ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि माया का बल देखकर अज्ञानी सुध - बुध भूल जाता है ।
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*विरक्तता*
*मन मनसा माया रती, पंच तत्व प्रकाश ।*
*चौदह तीनों लोक सब, दादू होहु उदास ॥१७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! चौदह भवन और तीनों लोक, यह सब पांच भूतों का कार्य है । अतः मन और मनसा की रति = प्रीति माया में रहती है । इनको मायारूप जगत - प्रपंच से उदास करके परमेश्‍वर में लगाइये ॥१७॥ 
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*माया देखे मन खुशी, हिरदै होइ विकास ।*
*दादू यहु गति जीव की, अंत न पूगै आस ॥१८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया कहिए, नोटों को देखकर, सोने - चाँदी को देखकर, संसारीजनों का मन बहुत प्रसन्न होता है और हृदय प्रफुल्लित होकर हुलसने लगता है । सब मायावी जीवों की यही गति होती है और मायिक सुखों में ही मग्न रहते हैं, परन्तु अन्त समय में किसी की भी इससे आशा पूर्ण नहीं होती है ॥१८॥ 
(क्रमशः)

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