शनिवार, 9 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१३/१५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*दादू नैनहुँ भर नहिं देखिये, सब माया का रूप ।*
*तहँ ले नैना राखिये, जहँ है तत्त्व अनूप ॥१३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण संसार के सुख माया के ही स्वरूप हैं, इनको अपने नेत्रों से सत्यरूप करके नहीं जानना, क्योंकि ये सब मिथ्या हैं । अपने नेत्रों को अन्तर्मुख करके हृदय में देखिये, जहाँ नित्य सुखस्वरूप मे आत्मा स्थित है ॥१३॥ 
नैनां रोग असाध्य है, जड़ी न बूंटी बैद । 
जीया चाहे जगत में अंखिया करले कैद ॥ 
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*हस्ती हय बर धन देख कर, फूल्यो अंग न माइ ।*
*भेरि दमामा एक दिन, सब ही छाड़े जाइ ॥१४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! श्रेष्ठ हाथी, घोड़े, सैन्य - बल और धन, इन सबको देखकर, भोगकर, संसारीजन अपने शरीर में फूले नहीं समाते हैं । आज ब्रज में होरी रे रसिया! बरजोरी रे रसिया । परन्तु हे अज्ञानियों ! यह ‘भेरि = शहनाई, ‘दमामा’ = नगारे बजते हुए ही तुम इन सबको छोड़कर अर्थात् मायिक सुखों को त्याग कर ईश्‍वर से विमुख हुए सभी लोग, काल के मुँह(जन्म - मरण) में चले जाएँगे ॥१४॥ 
चेतोहरा युवतय: सुहृदोऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयनम‘गिरश्व(भृव्या:)
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरंगा: संमीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति ॥ 
ऊँची ऊँची चित्र सारी, रंग का झरोखा भारी, 
ताके मध्य सभा सोहे, खान सुलतान की ।
छड़ीदार चोबदार बोलत अगाड़ी खाड़े, 
चढत ही भीर जू हजारन के कान की ॥ 
इते ही में ओचप अचानक जु मीच भई, 
गई देह छूट जब मानो लगी बान की ।
गढ कोट तोरबे की मिसलित भूल गये, 
मिसलित होन लगी चलन मसान की ॥ 
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*दादू माया बिहड़ै देखतां, काया संग न जाइ ।*
*कृत्रिम बिहड़ै बावरे, अजरावर ल्यौ लाइ ॥१५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह माया का वैभव देखते - देखते ही विनाश को प्राप्त होता है और यह शरीर भी प्राण और आभासयुक्त जीव के साथ नहीं चलता है । यद्यपि कायारूप माया तो नहीं चलती, तथापि समष्टि भाव से माया का पसारा तो प्रभावरूप से बना ही रहेगा । हे बेसमझ अज्ञानी ! जो भी कुछ माया का कार्य स्थूल प्रपंच है, वह तो सब कार्य कारण रूप ही है । इसलिए तू अजर अमर ब्रह्म में लय लगा ॥१५॥ 
माया मनिष मिले नहीं, 'जगन्नाथ' विहरंत । 
कै नर माया छाडई, कै माया नरहिं तजंत ॥ 
माया सगी न मन सगा, सगा न यहु संसार, 
'परसराम' इस जीव का, सगात सिरजनहार ॥ 
(क्रमशः)

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