रविवार, 10 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१९/२१)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*मन की मूठि न मांडिये, माया के नीसाण ।*
*पीछे ही पछिताहुगे, दादू खूटे बाण ॥१९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने मन की मुट्ठी माया से न भरिये । माया के नामरूप चिन्हों पर श्‍वास रूपी बाणों को न चलाइये । नहीं तो, अन्त समय मेंकाल का मुकाबला करने के लिए राम - नाम सहित श्‍वासरूपी बाण न रहने से फिर पश्‍चात्ताप ही करना पड़ेगा ॥१९॥ 
कनक कामिनी दोइ, माया के नीसांण तज । 
पछितावा फिर होइ, ‘हरिदास’ हरि नाम ले ॥ 
कनक कामिनी कीरति, तजिये तीनों ताप । 
सहजैं ही हरि पाइये, नाथ निरंजन आप ॥ 
‘रज्जब’ तन तरकस तैं जात हैं, श्‍वास स्वरूपी तीर । 
मांगे मिलै न मोल सौं, अरु यह निघटै बीर ॥ 
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*शिश्‍न स्वाद*
*कुछ खातां कुछ खेलतां, कुछ सोवत दिन जाइ ।*
*कुछ विषिया रस विलसतां, दादू गये विलाइ ॥२०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी संसारी जीवों के इस मनुष्य देह के श्‍वास, कुछ खाने - पीने में, कुछ खेलने में, कुछ सोने में, कुछ विषय - रस भोगने में इस प्रकार मानव - जीवन के दिन और श्‍वास व्यर्थ में ही नष्ट होकर इनके साथ यों ही समाप्त हो जाते हैं ॥२०॥ 
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*संगति कुसंगति*
*माखन मन पाहण भया, माया रस पीया ।*
*पाहण मन माखन भया, राम रस लीया ॥२१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मक्खन के सदृश परम पवित्र मन, वह माया के प्रभाव से कहिए - माया के रंग में आसक्त होकर निर्दयी, कपटी, छली इत्यादिक दुर्गुणों सहित पत्थर की भांति कठोर हो जाता है और यही पत्थर के समान निर्दयी, निठुर, कपटी, कुटिल जीवों का मन सत्संग करके सतगुरुओं का उपदेश लेकर, उसका विचार करता हुआ राम - रस को पी - पी कर मक्खन के समान कोमल हो जाता है ॥२१॥ 
(क्रमशः)

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