*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मन का अंग १० =*
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*दादू यहु मन पंगुल पंच दिन, सब काहू का होइ ।*
*दादू उतर आकाश तैं, धरती आया सोइ ॥११५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन गुण - क्रिया - विषय आदि से रहित, पांच रोज कहिए अल्प काल के लिए, सर्व ही पुरुषों का सत्संग द्वारा विषयों से उपराम हो जाता है । परन्तु फिर यही मन कुछ रोज के बाद, आकाश अर्थात् ब्रह्म दिशा से उतर कर मायावी पदार्थों में पुनः आसक्त हो जाता है । इसलिए हे साधक ! इस मन से सावधान रहना ॥११५॥
को पन्द्रह को पांच दिन को मास वर्ष लौं त्याग ।
‘रज्जब निबहै ओड़ लौं, महा कठिन वैराग ॥
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*ऐसा कोई एक मन, मरै सो जीवै नाहिं ।*
*दादू ऐसे बहुत हैं, फिर आवै कलि माहिं ॥११६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ऐसा कोई एक - आध ही जीवन - मुक्त पुरुष है, जिसका मन गुण - विकारों की तरफ से मर चुका हो और फिर उसका मन विषय - विकारों में आसक्त नहीं होता हो । ब्रह्मऋषि सतगुरु कहते हैं कि हे साधक पुरुषों ! ऐसे तो बहुत हैं, जो सकाम कर्मों द्वारा पुनः पुनः माया के भोगों में आसक्त होकर संसार में जन्मते - मरते रहते हैं ॥११६॥
किहिं किहिं पर मन उपज्या, किहिं किहिं भया न चाव ।
‘सम्मन’ सो कुंण रुंखड़ा, जिहिं न झकोरै बाव ॥
धो गति टूटै एक को, सालर गति सब कोइ ।
‘रज्जब' टूट्या सो भला, बहुरि न हरिया होइ ॥
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*देखा देखी सब चले, पार न पहुँच्या जाइ ।*
*दादू आसन पहल के, फिर फिर बैठे आइ ॥११७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! व्यवहार में, देखा - देखी साधनों की साधना तो बहुत से संसारीजन करते हैं, किन्तु इन देखा - देखी लौकिक साधनों से कोई भी संसार - सागर से पार नहीं उतरते हैं । पूर्व जन्म में ‘आसन’ कहिए, आशारूप संस्कारों के अधीन होकर, जन्म -जन्मान्तरों में फिर - फिर के उसी स्थिति पर आकर बैठते रहते हैं अर्थात् चौरासी के आवागमन में पड़ते हैं ॥११७॥
दो अहदी को देख के, पड़े बहुत उत आय ।
करी परीक्षा बादशाह, बाड़ कूद गये धाय ॥
दृष्टान्त - १ - एक बादशाह आ रहा था । मार्ग में दो पेड़ों के नीचे दो अहदी पड़े थे । एक से बादशाह ने पूछा, "तुम कौन हो ?" वह कुछ न बोला । तब बादशाह ने उसे एक चाबुक मारा । दूसरा अहदी बोला - "एक और मार, मेरे मुँह पर कुत्ता मूतता था, इसने उसको भगाया नहीं ।" बादशाह चकित हो गया और सोचा, यह तो दोनों महात्मा हैं । उनको ले जाकर एक स्थान पर लेटा दिया और उनकी सेवा करने लगा । फिर बादशाह ने नेम लिया कि जो अहदी होंगे, उनकी हम सेवा किया करेंगे । फिर तो देखा - देखी राज में बहुत से काश्तकार वगैरा अहदी बन गए । बादशाह उनको उठवा - उठवा कर फूस के छप्परों में लिटाने लगे । ऐसे आमने - सामने सैकड़ों अहदी पड़े हैं । दूसरे लोग उनके मुँह में दूध, हलवा, खीर, मेवा, मिष्ठान्न आदि खिला रहे हैं । मंत्री ने देखा कि यह राज इस तरह कैसे चलेगा ? दुनिया अहदी बनना शुरू हो गई है । बादशाह ने अहदियों की सेवा का नेम ले लिया है । यह सोचकर बादशाह के पास आया और बोला - हुजूर ! आप इस नेम का त्याग कर दीजिए । बादशाह बोला - नहीं । मंत्री बोला - तो असली अहदियों की सेवा करोगे या खहदियों की भी करोगे ? बादशाह - अहदियों की । मंत्री - तो हम परीक्षा कर लें । बादशाह - "जरूर ।" मंत्री ने दस - पांच खाली छप्परों में से एक के आग लगवा दी । चारों तरफ अहदियों की छावनी के मिलट्री का इन्तजाम करा दिया कि कोई भाग न सके । जब आग प्रज्वलित हुई, तब तो देखने वालों ने कहा - "अहदियों की छावनी में आग लग गई ।" तब जो नकली अहदी पड़े थे, उन्होंने सिर उठा कर आग की तरफ देखा और उठ - उठकर भागने लगे । फौजियों ने कहा - "यहीं लेटे रहो ।" तब तो छावनी में नकली अहदियों की घुड़दौड़ सी मच गई । आखिर कांटों की बाड़ कूद - कूद कर दौड़ने लगे । फौजियों ने गिरफ्तार करना शुरू कर दिया । अलग - अलग छप्परों में दोनों पड़े थे । ये दोनों अहदी मामा - भान्जा थे । मामा ने आग को देखकर कहा - भा !(कहना चाहिए था भानजा, क्योंकि वह सच्चा अहदी था, सो उसके तो बोलने का भी आलस्य था) । भानजा बोला - मा !(कहना चाहिए था मामा) । भानजा - आ !(कहना चाहिए था, "आग लग गई") । मामा बोला - टा !(अर्थात् रामजी टालेगे, हम तो उसके नाम पर अहदी हैं) । इतने में मंत्री ने कहा, उन दोनों अहदियों को उठाकर लाओ । बादशाह को बोले - "हुजूर, ये दो ही अहदी हैं, बाकी तो सब खहदी हैं ।" बादशाह उनकी सेवा करने लगा । बाकी सभी नकली अहदियों को कारागृह में बंद करा दिया और जितना राज का माल खाया था और जो जमीन आदि का लगान बाकी था, वह सब मंत्रियों ने उनसे वसूल कर लिया ।
माला फेरिन हार तैं, हासिल लेवत नाहिं ।
नृप दुख औषधि कालजा, मांगत सब उठि जाहिं ॥
दृष्टान्त - २ : - एक राजा ने एक भक्त किसान की आर्थिक स्थिति कमजोर देखकर उसका हासिल माफ कर दिया । तब उसकी देखा - देखी और किसान भी माला फेरने लगे और राजा से हासिल माफ करा लिया । अब तो बहुत किसान वैसा करने लगे । तब मंत्री ने सोचा ऐसे तो राज्य - कोष में अर्थ संकट आ जायगा । राजा से कहा - माला फेरने वालों की परीक्षा लेनी चाहिये । राजा ने कहा - ठीक है । मंत्री ने माला फेरने वाले सभी किसानों को एक भवन में बुलाकर रखा और एक - एक से कहा - राजा के भयंकर रोग हो गया है, उसको मिटाने के लिये माला फेरने वाले का कलेजा चाहिये । तब सब नट गये कि हम तो भक्त नहीं है, परन्तु सबसे पहले जिस किसान का हासिल माफ किया था, वह बोला - अवश्य लीजिए । यह सुनकर उसका तो हासिल माफ रखा, अन्य सबसे पिछले वर्षों का बकाया हासिल भी वसूल किया गया और आगे भी आरम्भ कर दिया ।
दार्ष्टान्त - अत: देखा देखी न करके हो सके, वही करना चाहिये । पूरी मंजिल ब्रह्मनिष्ठ और देह अध्यास से मुक्त कोई विरले पुरुष ही होते हैं ।
(क्रमशः)
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