शुक्रवार, 1 मार्च 2013

= मन का अंग १० =(११२/४)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*मन मनसा का भाव है, अन्त फलेगा सोइ ।*
*जब दादू बाणक बण्या, तब आशय आसण होइ ॥११२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं! जीवित काल में अपने मन और मन की इच्छा में जैसा भाव है जीवित काल में, अन्त समय कहिए, मरने के बाद उसी फल को प्राप्त करेगा । ब्रह्मऋषि कहते हैं कि जब जीवित काल में, जिस पदार्थ के साथ जैसा संयोग होता है, मरने के बाद उसी संयोग को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् उसी पद को प्राप्त कर लेता है ॥११२॥ 
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*जप तप करणी कर गये, स्वर्ग पहुँचे जाइ ।*
*दादू मन की वासना, नरक पड़े फिर आइ ॥११३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! विविध प्रकार के जप, तप आदि कर्म करने के प्रभाव से स्वर्ग में समाचार जा पहुँचे कि अमुक तपस्वी को अमुक दिन देवता लोग स्वर्ग में लावेंगे, परन्तु अन्तिम समय की मन की वासना ने उन्हें नरक में धकेल दिया । अत: यह मन भक्तों का प्रबल शत्रु है ॥११३॥ 
बणक बाम गोणै लियां, आयो जल अस्थान । 
जल पीबत तपसी गही, अदल बदल दिया दाम ॥ 
दृष्टान्त - एक बनिये के लड़के ने अपनी शादी अपनी कमाई से आप ही की । तीन साल के बाद जब गोना हुआ, तब स्त्री को लेकर आ रहा था । जंगल में एक वृक्ष के नीचे बैठे । लड़का बोला - उस तालाब में जल पी आओ । तब वह तालाब पर जा, जल पीकर बैठी - बैठी दोनों हाथों से एक मिट्टी के टीले पर पानी फैंकने लगी । मिट्टी धुल गई और तपस्वी की समाधि खुल गई । वह तपस्वी उस लड़की से बात करने लगे । बनिये के लड़के ने देखा, "अब तक क्या कर रही है ? चलूं देखूं ।" आगे आया, तो तपस्वी समाधि से उत्थान हुए बैठे हैं । लड़के ने नमस्कार किया । तपस्वी बोले - तुम कौन हो ? लड़के ने कहा - मैं बनिया हूँ । तपस्वी - बनिया तो सौदा किया करता है ? सौदा कर लो । लड़का "क्या सौदा ?" तपस्वी - "हमने एक हजार वर्ष तक तप किया हैं, हमारे ये समाचार स्वर्ग में भी पहुँच गये हैं । एक हजार वर्ष की तपस्या ले ले और यह लड़की हमें दे दे ।" ‘अगम बुद्धि बाणिया ।’ बनिये ने विचार किया कि इस स्त्री - संग से मैं मोह - ममता में बँधूंगा और आखिर नरक में ही जाऊँगा । हजार वर्ष की तपस्या तो मेरे बाप - दादा ने भी नहीं की । वह मुझे सहज में ही मिल रही है । यह सौदा मेरे लिए लाभदायक ही है । मेरे सारे पित्रों का भी उद्धार हो जायेगा । यह सोच कर बोला - "तपोधन !यह सौदा मुझे मंजूर है ।" तपस्वी ने हाथ में जल लेकर संकल्प छोड़ा कि एक हजार वर्ष की तपस्या का फल अमुक बनिये के लड़के को देता हूँ । इधर बनिये के लड़के ने भी संकल्प किया कि मैं अपनी स्त्री, तपस्वी को तप के बदले में देता हूँ । बनिये का लड़का अपने घर चला आया, तत्काल उसके पित्र नरक से स्वर्ग में पहुँच गये और वह ईश्‍वर की भक्ति करने लगा । तपस्वी जी का अन्त समय तो आ ही रहा था, वह उस स्त्री का संग करके नरक को प्राप्त हो गये । ब्रह्मऋषि कहते हैं कि मन की बुरी वासना, स्वर्ग में पहुँचने वालों को भी फिर नरक में डाल देती है ।
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*पाका काचा ह्वै गया, जीत्या हारे डाव ।*
*अंत काल गाफिल भया, दादू फिसले पांव ॥११४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन प्रभु के परायण, निर्विकार होकर भी सूक्ष्म संसार - वासनाओं के वश में होकर भोगों में फिर आसक्त हो जाता है । ‘जीत्या’ कहिए, गुण - विकार आदि से छुटकारा पाकर यह मन पुनः विषय - विकारों में फँस जाता है । इस प्रकार अन्तकाल कहिए पूर्ण अवस्था में अर्थात् अन्त समय में सूक्ष्म संस्कार वासनाओं के अधीन होकर इस प्राणी के सांचरूपी पाँव फिसल जाते हैं । तभी कहा है - "तपा रे तपा, काहे कूँ खपा, अन्त मता सो मता ।" इसलिए हे साधक पुरुषों ! मन से सदैव सावधान रहना चाहिए ॥११४॥ 
(क्रमशः)

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