शुक्रवार, 22 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(८२/८४)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*बिना भुवंगम हम डसे, बिन जल डूबे जाइ ।*
*बिन ही पावक ज्यों जले, दादू कुछ न बसाइ ॥८२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! बिना सर्प के ही इस मायारूपी सर्पणी से हम अज्ञानीजन डसे गये हैं और बिना जल के ही इस माया की तृष्णारूप जल में डूब रहे हैं । बिना ही पावक(अग्नि) के, कामरूप अग्नि से, अग्नि में जले जा रहे हैं । सतगुरु महाराज कहते हैं कि ऐसे राम - विमुख मायावी जीवों के जलने में कुछ भी देर नहीं लगती है, स्वयं को बचाने का उनके पास कोई साधन नहीं है ॥८२॥ 
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*दादू अमृत रूपी आप है, और सबै विष झाल ।*
*राखणहारा राम है, दादू दूजा काल ॥८३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अमृत स्वरूप तो केवल राम और राम की निष्काम भक्ति ही है । उसके बिना बाकी सब माया और माया के कार्य, विषय आदि शंखिया(विष) और अग्नि की झल(ज्वाला) रूप हैं । इनसे बचाने वाला तो केवल एक राम है । राम के बिना जो भी कुछ है, वह सब काल ही काल है ॥८३॥ 
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*बाजी चिहर रचाय कर, रह्या अपरछन होइ ।*
*माया पट पड़दा दिया, तातैं लखै न कोइ ॥८४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! वह सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ परमेश्‍वर ने यह मायारूपी बाजी रचाकर,(चिहर = चाहनारूप) आप स्वयं इसमें छिप रहा है । अपने और सांसारिक प्राणियों के बीच माया का पड़दा डाल लिया है । इसीलिए सांसारिक प्राणी, सत्य - स्वरूप परमेश्‍वर को अपने हृदय में नहीं देख पाते ॥८४॥ 
अचिंतशक्ति पह आसरै, रच्यौ खेल भगवान । 
बुधजन कौतिक देखि हैं, मोहित भये अजान ॥ 
(क्रमशः)

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