शुक्रवार, 22 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(८५/८७)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू बाहे देखतां, ढिग ही ढोरी लाइ ।*
*पीव पीव करते सब गये, आपा दे न दिखाइ ॥८५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर सर्व शक्तिमान्, जीव के पास ही है, परन्तु बहिर्मुख जीवो को तृष्णारूपी आकर्षण से मोहित कर माया में बहा दिये हैं । इसी से अज्ञानीजन माया से अति प्रीति करके तन्मय हो रहे हैं और किसी को भी अपना आत्मस्वरूप परमेश्‍वर दिखाई नहीं देता है । केवल अपने भक्तों को विचार रूपी डोरी देकर माया से मुक्त किये हैं । वे ही संतजन अभेद स्मरण द्वारा ब्रह्मरूप को प्राप्त होते हैं ॥८५॥ 
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*मैं चाहूँ सो ना मिलै, साहिब का दीदार ।*
*दादू बाजी बहुत हैं, नाना रंग अपार ॥८६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया ने अनन्तरूप होकर ऐसी रचना रची है कि सर्वत्र इस लोक से ब्रह्म - लोक पर्यन्त माया ही प्रत्यक्ष होती है । हम अनन्य भक्त परमेश्‍वर का साक्षात् दर्शन करना चाहते हैं, परन्तु वह नहीं होता है ॥८६॥ 
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*हम चाहैं सो ना मिलै, और बहुतेरा आइ ।*
*दादू मन मानै नहीं, केता आवै जाइ ॥८७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हम अनन्य परमेश्‍वर के भक्त परमेश्‍वर का दर्शन चाहते हैं, वह तो प्राप्त होता नहीं और रिद्धि - सिद्धि बहुत सी आती हैं, परन्तु हमारा मन उनसे राजी नहीं होता है । मायिक पदार्थं कितने ही आते हैं, वैसे ही चले जाते हैं । परमेश्‍वर के भक्त उनको नहीं अपनाते हैं ॥८७॥
(क्रमशः)

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