शनिवार, 23 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(८८/९०)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*बाजी मोहे जीव सब, हमको भुरकी बाहि ।*
*दादू कैसी कर गया, आपण रह्या छिपाइ ॥८८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! उस सर्व शक्तिवान् ईश्‍वर ने ऐसी भुरकी(मंत्र) डाली है कि माया के द्वारा देवताओं से लेकर तिर्यक् योनि तक सम्पूर्ण प्राणियों को मोहित कर रखे हैं और आप स्वयं विचित्र माया को रचकर इसमें छुपे बैठे हैं ॥८८॥ 
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*दादू सांई सत्य है, दूजा भ्रम विकार ।*
*नाम निरंजन निर्मला, दूजा घोर अंधार ॥८९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! वह निरंजन हमारा स्वामी परमेश्‍वर ही सत्य है और ‘दूजा’ कहिए, माया और माया का कार्य, भ्रम से सत्य प्रतीत होते हैं, परन्तु वे तो सब विकारी और विनाशी हैं । इसलिए निष्काम भाव से शुद्ध हृदय में निरंजनदेव का ही स्मरण करना चाहिए ॥८९॥ 
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*दादू सो धन लीजिये, जे तुम सेती होइ ।*
*माया बांधे कई मुए, पूरा पड़या न कोइ ॥९०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो तुम से लिया जाय तो केवल राम - नाम का स्मरण रूपी धन इकट्ठा कीजिए, क्योंकि वही धन तुम्हारे साथ चलेगा । रामधन को बिसार कर मायावी पदार्थों के संग्रह करने में अनेक प्राणी पच - पच कर मरते हैं, परन्तु किसी को भी मनुष्य - जन्म की सफलता नहीं प्राप्त होती है ॥९०॥ 
‘कबीर’ सो धन संचिये, जो आगे कूँ होई । 
सीस चढ़ाये पोटली, लेजात न देख्या कोइ ॥ 
बालक ज्यूं परवाह बिन, खालिक जप ‘जगन्नाथ’ । 
तालक तो नाहीं कछु, पालक धर इक साथ ॥ 
कमरी राखत ओढने, दमरी छुवै न हाथ । 
चमरी तज चेतन रहै, ममरी मन ‘जगन्नाथ’ ॥ 
काम साध निज धर्म यहु, वाम विवर जित साथ । 
दाम दुगानी दूर कर, राम जपो ‘जगन्नाथ’ ॥
(क्रमशः)

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