॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू कहै, जे हम छाड़ै हाथ थैं, सो तुम लिया पसार ।*
*जे हम लेवैं प्रीति सौं, सो तुम दिया डार ॥९१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिसको हम मुक्तजनों ने बुद्धिरूपी हाथ से संसार के भोग - वासनाओं को त्याग दिया है, उन भोग - वासनाओं को अज्ञानी मानव प्रीतिरूपी हाथ फैलाकर लेता है । इस प्रकार संतजनों ने स्वस्वरूप राम को प्राप्त कर लिया है और अज्ञानी सांसारिक जनों ने स्वस्वरूप को बिसार दिया है ॥९१॥
जन के जतन जु नाम को, अष्ट पहर इकतार ।
‘जगन’ जगत को गम नहीं, क्यूं कर ये इकसार ॥
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*दादू हीरा पग सौं ठेलि कर, कंकर को कर लीन्ह ।*
*पारब्रह्म को छाड़ कर, जीवन सौं हित कीन्ह ॥९२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! बहिर्मुख जीवों ने परमात्मा के नामों को त्यागकर विषय - वासनाओं में आसक्त प्राणियों से प्रीति की है । सो मानो, प्रभु के नामरूपी हीरे को तुमने दुर्वासना रूप पैरों से ठुकरा कर संसार के स्नेह रूप कंकर को तृष्णा रूप हाथों से लिया है । इस तरह तो उनका यह मनुष्य - जीवन निष्फल ही जाता है ।
‘कबीर’ रामहि थोड़ा जान कर, लोगन आगे दीन ।
जीवन को राजा कहै, माया के आधीन ॥
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*दादू सबको बणिजै खार खल, हीरा कोई न लेय ।*
*हीरा लेगा जौहरी, जो मांगै सो देय ॥९३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसार में प्रायः देखा जाता है कि सभी प्राणी विषय - वासना का ही व्यापार करते हैं और ईश्वर से भी ये भोग पदार्थ ही मांगते हैं । परन्तु हीरा रूप नाम निष्काम भाव से कोई नहीं लेता है । भक्तजन जौहरीरूप हैं, वे तो नाम के लिये तन, मन, धन, सब देने को तैयार हैं ॥९३॥
(क्रमशः)
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