रविवार, 24 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(९४/९६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*दड़ी दोट ज्यों मारिये, तिहुँ लोक में फेर ।*
*धुरि पहुँचे संतोंष है, दादू चढिबा मेर ॥९४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! शुभ, अशुभ कर्मरूपी डंडे हैं और यह चैतन्यरूप जीव, दड़ी(गेंद) रूप है । कभी शुभ कर्मरूपी डंडे के लगने से स्वर्ग में जाता है, फिर वहाँ पुण्य क्षीण होते ही पापरूपी डंडे के लगते ही गुड़ता - गुड़ता मृत्यु - लोक में आता है । इस प्रकार पाप और पुण्य इसको त्रिलोकी में घुमाते रहते हैं । जब यह जीवरूप मन, निष्काम नाम - स्मरणरूपी सीमा पर आता है, तब स्वरूप साक्षात्कार होते ही पाप - पुण्य के डंडों की मार से मुक्त हो जाता है । जब तक ‘धुरि’ कहिए, लक्ष्य ब्रह्म अवस्था को प्राप्त नहीं होवे, तब तक संतोंष नहीं आता है ॥९४॥ 
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*अनल पंखी आकाश को, माया मेरु उलंघ ।*
*दादू उलटे पंथ चढ, जाइ बिलंबे अंग ॥९५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे अनिल पक्षी आकाश से उतर कर, इधर - उधर फिरता है । फिर पीछे उलट कर आकाश में अपने माता - पिता से मिलकर प्रसन्न होता है । इसी प्रकार जिज्ञासुजन, "माया मेरु उलंघि" कहिए गुणातीत होकर, उलटे पंथ स्वस्वरूप में लीन होकर ब्रह्मभाव को प्राप्त होते हैं ॥९५॥
अनिल पंखि को चीकलो, पड़तां कियो विचार । 
सुरति फेरि उलटा फिर्या जाइ मिल्या परिवार ॥ 
सप्त सिधूरे ले उड़े, अनिल पंखि आकास । 
‘रज्जब’ सो भी जीव है, वेत्ता करो विमास ॥ 
(सिंधूरे = हाथी; विमास = विमर्श)
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*दादू माया आगे जीव सब, ठाढे रहे कर जोड़ ।*
*जिन सिरजे जल बूँद सौं, तासौं बैठे तोड़ ॥९६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया के रचे हुए कल्पित देवी - देवताओं के सामने हाथ जोड़ कर बहिर्मुख प्राणी भोग पदार्थ मांगते रहते हैं और जिस परमेश्‍वर ने वीर्य - बूंद से इस मनुष्य देह की रचना रची है, उस प्रभु से जीव, प्रीति तोड़ बैठे हैं ॥९६॥ 
(क्रमशः)

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