रविवार, 24 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(९७/९९)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= माया का अंग १२ =*
.
*सुर नर मुनिवर वश किये, ब्रह्मा विष्णु महेश ।*
*सकल लोक के सिर खड़ी, साधु के पग हेठ ॥९७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! देवता, नर, मुनि, ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन सबको माया ने अपने काबू में कर लिया है । तीन लोक, चौदह भवन में बसने वाले सभी के मस्तक पर माया बिराजती है । परन्तु परमेश्‍वर के अनन्य भक्त(भवेष्ट = महेश) के चरणों में तो वह दासी बनकर रहती है ॥९७॥ 
‘सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल’ - तुलसी
.
*दादू माया चेरी संत की, दासी उस दरबार ।*
*ठकुराणी सब जगत की, तीनों लोक मंझार ॥९८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह माया ब्रह्मनिष्ठ पुरुषों की सेवक बनकर रहती है और परमेश्‍वर के दरबार की अनुचरी है, और बाकी सभी के ऊपर त्रिलोकी में माया अनुशासन करती है ॥९८॥ 
.
*दादू माया दासी संत की, शाकत की सिरताज ।*
*शाकत सेती भांडणी, संतों सेती लाज ॥९९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह राम की माया, संतों की सेविका बन कर रहती है और शाक्त(विषयी, पामर) पुरुषों के सिर पर विकार रूप से रहती है । उनको विकारों में लेपती रहती है, अर्थात् अपने पीछे भ्रमाती है और गुणातीत संतों से तो लज्जा भाव से रहती है ॥९९॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें