शनिवार, 30 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१३३/१३५)


॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*जिन विष खाया ते मुये, क्या मेरा तेरा ।*
*आग पराई आपणी, सब करै निबेरा ॥१३३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिसने जहर खाया है, वह मरा है, चाहे अपने घर का जहर हो या दूसरे के घर का जहर हो । जहर का तो धर्म है मारनाऔर खाने वाले का धर्म है मरना । चाहे अपने घर की आग हो या दूसरे के घर की आग हो, वह तो जलावेगी ही । उसका तो धर्म जलाने का है । वह तो जला कर सबको नष्ट ही कर देगी ॥१३३॥ 
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*अपना पराया खाइ विष, देखत ही मर जाय ।*
*दादू को जीवै नहीं, इहि भोरे जनि खाय ॥१३४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! चाहे तो अपने घर का विष खाओ या पराये घर का विष खाओ, विष का तो धर्म मारने का ही है अथवा चाहे अपना घर वाला विष खाओ या पराये घर वाला विष खावें, विष खाने वाले तो सभी देखते - देखते मरेंगे ही । इस भूल में नहीं रहना कि अपने घर का जहर खाने से नहीं मरता और दूसरे घर का जहर खाने से ही मरता है । इसी प्रकार अपने घर की हो या और के घर की, स्त्री रूप माया को जो कोई भोगेगा, सो संसार - बंधन में अवश्य बंधेगा । इसलिये हे मुमुक्षुओं ! कभी भूल कर भी माया के मोह में नहीं भ्रमना ॥१३४॥ 
दादू सर्प पराया आपणा, तोड़ जीव को खाइ ।
लहरि चढै तब ही मरै, नारी नेह न लाइ ॥ 
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*दादू कहै, जनि विष पीवै बावरे, दिन दिन बाढै रोग ।*
*देखत ही मर जाइगा, तजि विषिया रस भोग ॥१३५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हे बावले ! हे बेखबर ! कभी विषय - विष को नहीं भोगना, क्योंकि इससे प्रतिदिन विषय - प्रवृत्ति रूप और जन्म - मरण रूप रोग बढ़ेगा और यह मनुष्य शरीर नाश हो जावेगा । इसलिये विषयों के रस को त्याग कर आत्म - ज्ञान का सम्पादन करिये ॥१३५॥ 
"न जातु काम: कामानां उपभोगेन शाम्यति । 
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥" -(महाभारत)

दोषेण तीव्रो विषय: कृष्णसर्प - विषादपि । 
विषं निहन्ति भोक्तारं, द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम् । -(विवेकचूड़ामणि)
(क्रमशः)

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