शनिवार, 30 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१३०/१३२)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*माया*
*माया मैली गुणमयी, धर धर उज्ज्वल नांम ।*
*दादू मोहे सबनि को, सुर नर सब ही ठांम ॥१३०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह राम की माया तमोगुण प्रधान होने से मैली है, परन्तु इसने अपने उज्जवल नाम रख लिये हैं । कहीं सोना, कहीं चांदी, कहीं रत्न, कहीं हीरा, कहीं जवाहर, कहीं लाल, इस प्रकार अपने रंग में सबको आकर्षित कर लिया है । सुर देवताओं को देवांगना रूप बनकर, नर को स्त्री रूप बनकर, सभी ठांम कहिए, तीनों लोकों में प्राणी मात्र को अपने आधीन करके अपने स्नेहरूपी रंग में रंग लिया है ॥१३०॥ 
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*विषय अतृप्ति*
*विष का अमृत नांव धर, सब कोई खावै ।*
*दादू खारा ना कहै, यहु अचरज आवै ॥१३१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मायारूपी विषय - भोगों का अमृत - तुल्य नाम धर कर भोगते हैं और उनको ‘खारा’, कहिए दुःखरूप करके नहीं जानते हैं । परन्तु वास्तविकता से विचार कर देखें, तो वे दुःखरूप हैं । अज्ञानी मनुष्य विषय विष को सुखरूप समझता है । यह देखकर हम मुक्त पुरुषों को बड़ा आश्‍चर्य आता है ॥१३१॥ 
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*दादू जे विष जारे खाइ कर, जनि मुख में मेलै ।*
*आदि अन्त परलै गये, जे विष सौं खेलै ॥१३२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह विषय - भोग भोगने से मनुष्य के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, सब नाश हो जाते हैं । इसी से हे जिज्ञासुओं ! इसको स्वप्न में भी नहीं भोगना, क्योंकि जो भोग भोगते हैं, उनके पूर्व - जन्म के सुकृत और जन्म - जन्मान्तर के शुभ संस्कार नष्ट हो जाते हैं ॥१३२॥ 
(क्रमशः)

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