रविवार, 31 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१३६/१३८)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*माया*
*ब्रह्म सरीखा होइ कर, माया सौं खेलै ।*
*दादू दिन दिन देखतां, अपने गुण मेलै ॥१३६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! चाहे ब्रह्म अवस्था को प्राप्त भी हो गया हो, अगर फिर माया से खेलेगा अर्थात् माया में आसक्त रहेगा, तो धीरे - धीरे माया अपने गुण - धर्म विकार सब उसमें रख देगी और वह ब्रह्म अवस्था से अवश्य ही गिर जाएगा ॥१३६॥ 
माया फिरत लगाम ले, तपस्वी गर्व्यो पेखि ।
बन सेवकनी ठग लियो, ऐड दई कहि देखि ॥ 
दृष्टान्त - माया ने एक चाबुक सवार का रूप बनाकर एक हाथ में चार - पांच लगाम और दूसरे हाथ में हंटर लिए जंगल में घूमती हुई आई । वहाँ एक तपस्वी तप कर रहे थे । तपस्वी देखकर बोला - यह लगाम तुम्हारे हाथ में है, घोड़े तो नहीं हैं । माया बोली - यह उन घोड़ों के लिए लगाम है जो बड़े - बड़े तपस्वी हैं । मैं माया हूँ । तपस्वी - हमारी भी लगाम होगी इसमें ? माया - नहीं, तुम्हारे जैसों पर तो मैं ऐसे ही फुदक कर बैठ जाती हूँ । तपस्वी क्रोध में आकर बोले - जा, भाग जा यहाँ से । माया ने कहा - ठीक है । सायंकाल को एक महान् दिव्य सुन्दरी का रूप बनाकर आ गई । तपस्वी को नमस्कार किया । तपस्वी बोले - रात को हम यहाँ नहीं रहने देते हैं, जाओ, चली जाओ । कुछ दूर जाकर एक पेड़ के नीचे बैठ गई । राम की माया थी, वह बैठी - बैठी तपस्वी के मन में फुरणा करने लगी । तपस्वी को अपनी तपस्या का बड़ा अहंकार था । उसी अहंकार को गिराने के लिए ईश्‍वर ने यह लीला दिखाई । जब आधी रात का समय हुआ, तपस्वी कहने लगा, "यहाँ आ जा ।" माया बोली, "मैं नहीं आती ।" तपस्वी उठ करके खुद गये, माया का हाथ पकड़ा । माया कुपित होकर बोली - "मेरा हाथ क्यों पकड़ा है ?" तपस्वी बोला - मेरा राम निकल गया । माया - "तो तुम विचार कर देखो, मैं जंगलों में क्यों फिरती हूँ ? मेरे में एक ऐसी आदत है, जो घोड़ा बनकर मुझको अपने ऊपर चढ़ावे और फिर घुमावे, तब मैं उसका कहना करती हूँ ।" तपस्वी घोड़े बन गए और बोले - "अब मुझ पर बैठो ।" फिर इधर - उधर घूमने लगा । माया ने वही चाबुक सवार का रूप बना लिया और तपस्वी के हंटर मारा । हंटर लगते ही तपस्वी ने उधर झांका, तो वही चाबुक सवार है । माया बोली - "तुम हो मेरे बिना लगाम के घोड़े, और मुझे ऊपर बैठाकर जंगल में दौड़े ।" तपस्वी का अहंकार दूर हो गया और नत - मस्तक होकर माया से क्षमा याचना की - "हे माता ! तेरी दया से ही हम तेरे पंजे से छूट सकते हैं ।"
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*माया मारै लात सौ, हरि को घालै हाथ ।*
*संग तजै सब झूठ का, गहै साच का साथ ॥१३७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया ऐसी प्रबल है कि सब जीवों को सैकड़ों बार लात से मारती है अथवा तमोगुण प्रकट करके विषयों में प्रवृत्ति कराती है । साधारण जीवों की तो गिनती ही क्या है ? ब्रह्मा - विष्णु - महेश को भी ‘हाथ घाले’ कहिए, तमोगुण प्रकट करके मोहित करती है । इस प्रकार अपना पूर्ण पसारा फैलाकर, फिर झूठ का संग तज कर सांच का हाथ पकड़ती है, अर्थात् प्रलय अवस्था में स्वयं माया भी कारण भाव ब्रह्म में ही लय हो जाती है, चितावणी पक्ष में वैराग्यवान् संतों की महिमा दर्शाते हैं कि जो माया को सैकड़ों लात मारकर समष्टि चैतन्य हरि को विवेक विचार द्वारा संपादन करते हैं वे अनात्म माया का संग त्यागकर ब्रह्मवेत्ता संतों का संग करके हरि को प्राप्त करते हैं ॥१३७॥ 
विद्यारण्य मुनि ने किये, माया लगी अनुष्ठान ।
भये सन्यासी आ गई, शिला धरो मम थान ॥ 
दृष्टान्त - विद्यारण्य मुनि ने माया की प्राप्ति के लिए कई अनुष्ठान किये । वे चाहते थे कि माया मूर्ति रूप से मेरे सामने आवे, रूपया - पैसा, सोना, चांदी रूप से तो माया खूब आई, परन्तु मूर्ति रूप से प्रकट नहीं हुई । तब मुनि को माया से वैराग्य हो गया और संन्यासी बन गये । तब माया प्रकट हो गई । माया बोली - मुझे आप भोगो । आप के बुलाने से आई हूँ । मुनि बोले - तुम्हें बुलाया तब तो आई नहीं, अब मुझे इच्छा नहीं है । माया बोली - आप मुझे नहीं भोगोगे तो आप को जन्म दूँगी । मुनि ने कहा - "जो हम कहेंगे, वह करोगी ?" माया - जरूर करूँगी । मुनिः - सौ मन की सोने की एक शिला बना दे । माया के संकल्प से बन गई । मुनि बोले - इसको सिर पर रख ले और मेरे पीछे - पीछे आ जा । मुनि बीस मील पर जाकर रूके । माया को कहा - शिला उतार कर रख दे । उस पर आसन लगा कर बैठ गए, भजन करने लगे । प्रातः काल फिर वैसा ही किया । सायंकाल फिर उसी प्रकार भजन करने लगे । माया घबरा गईं । जब वृन्दावन जीव गुसाईं जी के आश्रम पर आकर पहुँचे, माया जीव गुसाईं जी के पास रोने लगी कि मुझे रोजाना बीस - बीस, चालीस - चालीस मील शिला लेकर मुनि के साथ चलना पड़ता है । मेरी खोपरी के बाल उड़ गये । आप मुझे इस दु:ख से मुक्त कराओ । जब सवेरे विद्यारण्य मुनि चलने को तैयार हुए, तो जीव गुसांईं जी बोले - महाराज ! यह शिला तो यहीं रहने दो । विद्यारण्य मुनि बोले - इसने आपको कुछ कहा होगा । जीव गुसांई जी बोलेः - अब क्षमा करो इसको । विद्यारण्य मुनि बोले - आगे किसी सन्त को अब जन्म देने के लिए मत बोलना । माया नत मस्तक हो गई । मुनि के चरणों में नमस्कार करके, प्रस्थान कर गई । ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज कहते हैं कि ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष ऐसे माया को लात से मारते हैं ।
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*घर के मारे वन के मारे, मारे स्वर्ग पयाल ।*
*सूक्ष्म मोटा गूंथकर, मांड्या माया जाल ॥१३८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह राम की माया घर, वन एवं स्वर्ग,पाताल के सभी प्राणियों को अपने वासना रूप, संकल्प - विकल्प और कनक - कामिनी रूप को रचकर विषय - प्रवृत्ति उत्पन्न करके अपने जाल में बांधती है । इस माया ने सूक्ष्म वासनारूप जाल और स्थूल कनक - कामिनी, जमीन जायदाद, मोह ममता रूप, इन दोनों जालों से प्रवृत्ति मार्ग वाले तथा निवृत्ति मार्ग वालों को अपने कब्जे में रखती है । कोई विरले सच्चे पुरुष ही गुरु ज्ञान द्वारा इससे मुक्त होते हैं ॥१३८॥ 
माया रोवत देखि द्विज, कासी नगर मंझार ।
पूछी मेरे जाल को, गया कबीरा फाड़ ॥ 
दृष्टांत - १. माया स्त्रीरूप से काशी में एक रोज रो रही थी । ब्राह्मण ने पूछा - बाई ! क्यों रोती है ? और हाथ में मोटा और मजबूत जाल लिये क्यों बैठी है ? माया बोली - मैं माया हूँ । मैंने भोग - वासना रूप सूक्ष्म जाल और कामिनी रूप मोटा जाल गूंथ कर सबको फँसाती हूँ और काम - क्रोध आदि रूप आघातों से सबको मारती हूँ किन्तु मेरे इस मजबूत और मोटे जाल में कबीर नहीं फँसा तथा तन मन को झीना बनाकर बेदाग रूप से सदेह निज स्वस्वरूप ब्रह्म में लीन हो गया । कहीं उसकी देखा - देखी और लोग भी माया के फंदे से बच निकले तो मेरा क्या हाल होगा ? यही सोचकर मैं रो रही हूँ । तब ब्राह्मण ने उसे ढाढस बँधाते हुए दादूदयाल जी की यह साखी सुनाई -
"अधर चाल कबीर की आसंधी नहीं जाय ।
दादू डाकै मृग ज्यों उलटि पड़ै भुईं आय ॥ 
"देख भर्थरी लड़त दो दुर्बल दीन नर नार ।
खीज तिय कहि खसम सौं मो बिन ह्वै इमिख्वार ॥"
दृष्टांत - २ - एक गाँव में दो दीन दुर्बल स्त्री - पुरुष लड़ रहे थे । उसी समय वैराग्य धारण किये हुये राजा भर्तृहरि योगी के भेष में फरी कंथा ओढे हुए उधर से निकले । स्त्री ने अपने पुरुष को भर्तृहरि(भरथरी) की ओर इंगित करते हुए कहा - देख, मेरे बिना तू भी उनकी तरह "घरके मारे वनके मारे" खराब होता फिरेगा । यह माया, चाहे गृहस्थी हों, चाहे वनवासी हों, सबको समान रूप से आसुरी गुणों द्वारा मारती रहती है । इससे बचने का एक ही मार्ग है - "सुमिरण पैंडा सहज का, सतगुरु दिया बताय ।"
(क्रमशः)

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