बुधवार, 27 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(११२/११४)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*नाना विधि के रूप धर, सब बांधे भामिनी ।*
*जग बिटंब परलै किया, हरि नाम भुलावनी ॥११२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह एक ही राम की माया अर्थात् भामिनी ने अनेकों स्त्री रूप बनाकर सभी को अपने वश में किया है । मनुष्य, पशु, पक्षी इससे कोई बच नहीं पाते है । इस प्रकार सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को बिटपना में अर्थात् वासना में भटका रखा है और सारे संसार को प्रलय कर रही है अर्थात् नाश कर रही है और परमेश्‍वर के नाम को भुला रही है । जो कोई परमेश्‍वर का नाम भी लेते हैं, वह भी सकाम कहिए, वासना के वशीभूत होकर ही लेते हैं । इसलिए व्यष्टि भावना को त्याग कर समष्टि भावना से परमेश्‍वर की आराधना कीजिए ॥११२॥ 
छन्द त्रिभंगी
तो माया बटके, काल हि झटके, 
लेकर पटके, सब गटके । 
ए चेटक नटके, जान हि तट के, 
नेक न अटके, तब सटके ॥ 
जी डोलत भटके, सतगुरु हटके, 
बंधन घर के काटेला । 
दादू का चेला, चेतन भैला, 
सुन्दर मारग बूझेला ॥ 
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*बाजीगर की पूतली, ज्यौं मर्कट मोह्या ।*
*दादू माया राम की, सब जगत बिगोया ॥११३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! बाजीगर की पुतली से यह मतलब है कि पुतली स्वयं तो कोई सत्ता रखती नहीं है, किन्तु बाजीगर की सत्ता से ही सत्तावान् प्रतीत होती है । परन्तु मूर्ख बन्दर, पुतली का रूप और खेलों को देख कर मोहित हो जाता है । इसी प्रकार माया भी परमेश्‍वर की सत्ता से सत्तावान प्रतीत होती है, परन्तु साधारण प्राणी, परमेश्‍वर की सत्ता को समझते नहीं हैं और माया में ही आसक्त होकर प्रभु से विमुख हुए, विषय - वासना में ही भ्रमते हैं । इस तरह माया ने सब जगत के प्रेमियों का नाश किया है ॥११३॥ 
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*शिश्‍न स्वाद*
*मोरा मोरी देखकर, नाचै पंख पसार ।*
*यों दादू घर आंगणै, हम नाचे कै बार ॥११४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! स्वयं को उपलक्षण करके ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि काम - वासना से जिस तरह मोर मोरनी को देख कर नृत्य करता है, इसी तरह संसार में अज्ञानीजन मायावी स्त्री आदि के शरीर को देखकर, वासनारूप पंख पसार कर, इस मनुष्य शरीर में एवं संसार में नाचते हैं अर्थात् माया का पसारा फैलाते हैं और जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमते रहते हैं । इससे मुक्त होना है तो पुरुष - स्त्री दोनों, शारीरिक शक्तियों का जन - कल्याण में और देश - सेवा में उपयोग करके अपने जन्म को सार्थक करें ॥११४॥ 
(क्रमशः)

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