गुरुवार, 28 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(११८/१२०)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*माया*
*दादू दीपक देह का, माया प्रगट होइ ।*
*चौरासी लख पंखिया, तहाँ परै सब कोइ ॥११८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! स्त्री आदि का शरीर ही मानो माया का दीपक जल रहा है । इस दीपक को देखकर मनुष्य से लेकर चौरासी लाख जीव पर्यन्त इस मायावी शरीर में आसक्त होते हैं । इससे कोई बिरले परमेश्‍वर के अनन्य भक्त ही बच पाते हैं ॥११८॥ 
देही दीप छवि तेल त्रिया, बाती वचन बनाइ । 
बदन ज्योति दृग देखते, परत पतंगा आइ ॥ 
बामा बाजा नाद सुन, तन छवि ज्योति निहार । 
‘जगन्नाथ’ मृग मगन नर, लेय बधिक जम मार ॥ 
भौंह धनक काजल प्रत्यंच, बाण विशाल बरून । 
मूसन मन मृगला भयो, पारधी नैन तरून ॥ 
छूटत नहिं सत्संग बिन, नहिं निकसन को जान ।
कैसौ बामा बधिक है,जित तित साधे बान ॥ 
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*पुरुष प्रकाशक*
*दादू यहु घट दीपक साध का, ब्रह्म ज्योति प्रकाश ।*
*दादू पंखी संतजन, तहाँ परैं निज दास ॥११९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मनिष्ठ मुक्त - पुरुषों का शरीर ही मानो दीपक है और उसमें ब्रह्म - साक्षात्कार रूपी ज्योति जगमगाती है । उत्तम जिज्ञासु ही पतंगरूप हैं । वे संसार की तरफ से उड़कर अर्थात् वैराग्य द्वारा, उन ब्रह्मनिष्ठों के पास आकर ब्रह्मभाव को प्राप्त होते हैं ॥११९॥ 
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*विषय विरक्तता*
*दादू मन मृतक भया, इंद्री अपणै हाथ ।*
*तो भी कदे न कीजिये, कनक कामिनी साथ ॥१२०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह अपना मन सब प्रकार निर्वासनिक हो जावे और पांचों ज्ञानेन्द्रियां अन्तःकरण रूपी हाथ में एकाग्र हों तो भी कनक और कामिनी में अर्थात् स्त्री में विषयों की वासना द्वारा आसक्त नहीं होना, तभी कल्याण होगा ॥१२०॥ 
मन मनसा द्वै वश किये, काया गुण निरजीव । 
‘जगन्नाथ’ कामिनी कनक, मिले होत सरजीव ॥ 
सूई ज्यूं निहचल चलै, चुंबक पेखि पखाण । 
‘जगन्नाथ’ कामिनी कनक, देखत जगै मसाण ॥
(क्रमशः)

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