गुरुवार, 28 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१२१/१२३)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*जानै बूझै जीव सब, त्रिया पुरुष का अंग ।*
*आपा पर भूला नहीं, दादू कैसा संग ॥१२१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण जीव अपने शरीर को पुरुषरूप जानते हैं और स्त्री के शरीर को नारी समझते हैं । जब तक अपना और पराया, इस अध्यास का त्याग नहीं किया, तब तक परमेश्‍वर का साथ कैसे हो ? अर्थात् नहीं होता ॥१२१॥ 
जिहिं माया मुनिजन ठगे, सींगी रिषी से लोइ । 
‘जगजीवन’ इस अंग सूं, बिरला बंचै कोई ॥ 
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*माया के घट साजि द्वै, त्रिया पुरुष धरि नांव ।*
*दोन्यूं सुन्दर खेलैं दादू, राखि लेहु बलि जांव ॥१२२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे एक ही कुम्हार मिट्टी के दो बर्तन बनाता है, एक का नाम घड़ा और दूसरी का नाम सुराही रख दे, परन्तु दोनों का उपादान कारण तो मिट्टी ही है और निमित्त कारण कुम्हार है । इसी प्रकार एक ही मायारूप मिट्टी के दो शरीर, एक का नाम पुरुष तथा दूसरे का नाम स्त्री है, वही नर और मादा नाम से कहे जाते हैं । परन्तु वास्तविकता में देखें तो दोनों का उपादान कारण माया ही है और निमित्त कारण ईश्‍वर है । दोनों बहुत सुन्दर सजाकर बनाये हैं, जहाँ तहाँ शरीर में अंग - प्रत्यंग दिखाये हैं । सतगुरु महाराज कहते हैं - "हे साधक पुरुषों ! दोनों में एक चैतन्य सत्ता ही व्यापक है, इसका विचार करके दोनों शरीर, विषय आसक्ति से मुक्त होकर जो स्वस्वरूप में स्थित होते हैं, उनकी हम बलिहारी जाते हैं ॥१२२॥ "
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*बहिन बीर सब देखिये, नारी अरु भरतार ।*
*परमेश्‍वर के पेट का, दादू सब परिवार ॥१२३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! एक ही माया रूप माता से दोनों शरीर उत्पन्न हुए हैं और पिता भी सबका एक ईश्‍वर ही है । क्या हिन्दू और क्या मुस्लिम, क्या स्त्री और क्या पुरुष, इनमें ऊँच - नीचता कहाँ है ? चैतन्य सत्ता भी सबमें समान भाव से व्याप्त हो रही है, तो फिर व्यवहार दृष्टि में भी, विचार कर देखें तो ईश्‍वर के घर में सभी समान हैं । तब स्त्री और पुरुष आपस में अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा करें तथा बल, बुद्धि, आयु की वृद्धि को प्राप्त हों । केवल एक या दो सन्तान उत्पन्न होने के बाद अपने आपको परमार्थ मार्ग पर ले जाने के लिए अर्थात् आत्म - ज्ञान सम्पादन करने को बहन और भाई सा बर्ताव करें । उपरोक्त सिद्धान्त का विचार करके यही ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज का मानव मात्र को उपदेश है ॥१२३॥ 
सभी जीव भाई भाई हैं, परमपिता वह एक । 
सब ज्ञानों का ज्ञान यही है, सबसे बड़ा विवेक ॥ 
पिता सबनि को एक है, जननी एकै जोइ ।
एक उदर उत्पन्न भये, नीच ऊँच सब कोइ ॥ 
नानक को शिष गरब करि, कही मो सम नहीं आन । 
और दिखायो जाट एक, आन गाँव में जान ॥ 
दृष्टान्त - गुरु नानक जी का कोई शिष्य था । उसने मन में भारी अहंकार किया कि मेरी जैसी गुरु की सेवा कोई नहीं करता है । वह बोला - गुरु जी, जैसा मैं आपका सेवक हूँ, ऐसा कोई नहीं है । गुरु नानक देव समझ गये कि इसे अहंकार हो गया । इस अहंकार से इसका पतन होगा । उसको अपने साथ लेकर दूसरे गाँव में गये । वहाँ एक मायावी जाट उस जैसा(डुप्लिकेट) दिखाया । उसने बहुत सेवा की । गुरु नानक बोले - यह हमारा सच्चा शिष्य है । उपरोक्त सेवक बोला - "मैं हूँ आप का शिष्य तो !" गुरु बोले - "नहीं, तुम नहीं हो, यह है हमारा शिष्य ।" शिष्य ने सोचा कि मेरी हूबहू शक्ल का यह कहाँ से प्रकट हो गया ? क्या इस डुप्लिकेट को देखकर मुझ असली को भूल रहे हैं ? उसका अहंकार चूर हो गया और चरणों में नत - मस्तक होकर क्षमा याचना की । गुरु नानक बोले, "अब कभी ऐसा अहंकार नहीं करना ।" ब्रह्मऋषि सतगुरु महाराज कहते हैं कि परमेश्‍वर ने दोनों एक जैसे ही बनाये हैं ।
(क्रमशः)

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