शुक्रवार, 29 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१२४/१२६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*पर घर परिहर आपणी, सब एकै उणहार ।*
*पसु प्राणी समझै नहीं, दादू मुग्ध गँवार ॥१२४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! पराये घर की और अपने घर की, दोनों एक - सा ही विषय सुख देने वाली हैं । अत: पर स्त्री गमन का विचार त्याग दो । दोनों एक - सा ही नरक रूपी फल देने वाली हैं, ऐसा जानकर दोनों से ही विषय आसक्ति रूपी भोगों से मुक्त रहना । सब एक ही उणहार की हैं । परन्तु पशु बुद्धि वाले पामर विषयी मनुष्य कहते हैं कि अपनी स्त्री से संभोग करने में पाप नहीं होता है । ऐसे मोह में अंधे गँवार, विषयों के प्रेमी आत्म - वस्तु से दूर ही रहते हैं ॥१२४॥ 
श्‍लेष विशेष - "पर नारी सब भैंण भाणजी यहु संतन मत लहिये" सन्त - मत में परस्त्री गमन का पूर्ण निषेध है । पशु तो अपनी माता, बहिन, पुत्री, स्त्री, आदि अपनी - पराई कुछ समझते नहीं हैं । ऐसे पशुवत व्यवहार करने वाले नर देह धारी प्राणियों को श्री दयाल महाराज ने जड़बुद्घि(गंवार) और मूर्ख शब्दों से संबोधित किया है ।
"नारी पराई आपणी, भुगते नरकहि जाहि । 
अग्नि अग्नि सब एक है, तामें हाथ न बाहि ॥ 
क्या घर की, क्या और की, नारी नरक समान । 
‘नाथ’ कहै ते ऊबरे, जिन पाया ब्रह्म गियान ॥ 
पुरुष गयो त्रिय त्यागकर, भोली परनी और । 
चील होइ दोनों गई, बाज होइ त्रिठोर ॥ 
दृष्टान्त - एक पुरुष अपनी स्त्री को छोड़कर किसी अन्य शहर में गया । कुछ रोज के बाद उसकी सुशीलता देखकर उस नगर के एक परिवार वाले ने अपनी लड़की की शादी उससे कर दी । वह लड़की बोली - आपकी पहले शादी हुई थी या नहीं ? वह बोला - नहीं हुई । लड़की बोली - "नहीं, शादी तो आप की जरूर हुई है ।" एक रोज उसके घर में एक सर्प निकल आया । पुरुष डरने लगा । स्त्री बोली - डरो मत ! उसने तत्काल न्यौल रूप धारण कर सर्प के टुकड़े - टुकड़े कर दिये । फिर स्त्री बन गई । यह देखकर पुरुष का दिल दहल गया और चुपके से घर छोड़कर चला गया । आगे एक राजा के यहाँ नौकर हो गया । राजा ने उसको बाध्य करके शादी करवा दी । कुछ दिन बाद उसकी पहली दोनों स्त्रियां, चील का रूप बनाकर आ गईं और उसके महल के ऊपर घूमने लगी । तीसरे नम्बर वाली स्त्री बोली - "आपकी पहले वाली दोनों स्त्रियां चील रूप में ऊपर घूम रही हैं आपकी खोज में ।" वह घबराया । तब उसने कहा - डरो मत ! उसने तत्काल बाज का रूप बनाया और दोनों को एक ही झपट्टे में खत्म कर दिया । इस पुरुष ने देखा कि ये तो तीनों ही एक समान हैं । पिस्तोल उठाकर एक गोली मारी । वह बाज रूप भी खत्म हो गई और बोला -
काली भली न कोड्याली, राती भली न श्‍वेत । 
राघो चेतन यौं कहै, "भाई, तीनों राखो खेत" ॥ 
तीनों ही प्राण घातक हैं, ऐसा जानकर तीनों का ही त्याग किया । ब्रह्मऋषि गुरुदेव कहते हैं कि "सब एकै उणहार" ।
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*पुरुष पलट बेटा भया, नारी माता होहि ।*
*दादू को समझै नहीं, बड़ा अचंभा मोहि ॥१२५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस माया रूप स्त्री की ऐसी विचित्रता है कि इसके स्नेह में जो इसका पुरुष था, वह इसका बेटा बन जाता है । और जो पहले नारी थी, वह आगे चलकर इसकी मां बन जाती है । इस बात को विषयी, पामर कोई भी नहीं समझते हैं कि इसके भोगने में ऐसा अनर्थ होता है । ब्रह्मऋषि सतगुरु कहते हैं कि इस मायावी लीला का हमें भारी आश्‍चर्य हो रहा है ॥१२५॥ 
या माता तु पुन: भार्या, या भायो जननी हि सा । 
य: पिता स: पुन: पुत्रो य: पुत्र: स: पुन: पिता ॥ 
गुरु दादू रामत करत, देख्यो अचरज एक । 
पुत्र खिलावत जाटणी, पति त्रिय ममत्व विशेष ॥ 
दृष्टान्त - ब्रह्मऋषि दादू दयाल जी महाराज शिष्यों के सहित रामत करते हुए जा रहे थे । मार्ग में एक जाटणी गोदी में एक पुत्र खिला रही थी । यह देखकर गुरुदेव को हँसी आ गई । शिष्यों ने पूछा - महाराज ! हँसने का कारण क्या है ? गुरुदेव बोले - इस जाटणी में इसके पति की बहुत प्रीति थी । वह मर गया और स्नेह वश वह इसी का पुत्र बन गया । उसको यह खिला रही है । इस माया की विचित्रता पर हमें हँसी आ गई । शिष्यों ने भी इस माया के रहस्य को समझा ।
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*माता नारी पुरुष की, पुरुष नारी का पूत ।*
*दादू ज्ञान विचार कर, छाड़ गये अवधूत ॥१२६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस राम की माया की बड़ी विचित्रता है । जो पहले जन्म में पुरुष की माता होती है, वही दूसरे जन्म में उस पुरुष की स्त्री हो जाती है और जो पहले जन्म में उसका पति था, वह दूसरे जन्म में उसका पुत्र हो जाता है । अत: स्त्री को ‘जाया’ कहते हैं - "जायते स्वयमेव पतिर्यस्याम्" यह मायावी विषय - वासनाओं का प्रेम कभी - कभी ऐसे अनर्थ का कारण बनता है । यह विचार करके अर्थात् मन का मायिक वासनाओं का दमन करने वाले महापुरुषों ने इस मायिक सुख का त्याग कर दिया है ॥१२६॥ 
जिन अंचल अमृत पिया, तिन जनि हाथ लगाइ । 
‘जगन्नाथ’ जननी सबहि, जन्मभौमि जनि जाइ ॥ 
जिन स्तनों पय पान किय, तिनकी वांछत घात । 
‘जगन्नाथ’ कर वन्दना, थान थान सब मात ॥ 
साध जिमावण कारणै, बणिक ले चल्यो भौन । 
तीन ठौर हँस कर कही, भैंसो अज तिय मौन ॥ 
दृष्टान्त - एक वैश्य कुल का भक्त, ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव को शिष्यों सहित अपने घर भोजन कराने ले जा रहा था । एक भैंसे पर जल की पखाल जा रही थी । महाराज ने पूछा - यह जल कहाँ जाएगा ? पखाल वाले ने कहाः - आज राजा का श्राद्ध है, वहाँ जाएगा । परम गुरुदेव हँसने लगे । आगे चलकर देखा कि एक बनिये की गोद में बकरी का बच्चा खेलता हुआ आकर बैठता है । वह उठा कर उसे फेंक देता है । वहाँ भी हँस गये । जब वैश्य के घर पहुँचे, तो उसकी स्त्री को देख कर हँस गये । वैश्य भक्त को बहुत आश्‍चर्य हुआ और उसकी स्त्री ने इधर - उधर अपना अंग देखा कि कहीं से बदन मेरा खुला तो नहीं है महाराज कैसे हँस गये ? महाराज के चरण धोए, चरणामृत लिया और अपने घर को पवित्र किया । भक्त ने फिर महाराज की शिष्यों के सहित पूजा की और नत मस्तक होकर नमस्कार किया । हाथ जोड़ कर तीनों स्थानों पर हँसने का कारण पूछा । ब्रह्मऋषि दादूदयाल बोले - "वह राजा तो आप ही भैंसा बना हुआ था और आप ही अपने श्राद्ध में पानी भर रहा था । उसे कोई एक माल पुड़ा भी नहीं देंगे । इस माया की विचित्रता पर हमें हँसी आ गई । दूसरी जगह बनिया की गोद में बकरी का बच्चा बनकर उसका बेटा बैठा था, परन्तु यह बनिये को पता नहीं, वह उसको फेंकता था, फिर मुझे हँसी आ गई । यहाँ पर आकर देखा तो यह स्त्री पहले आपकी माता थी, स्नेह वश दूसरे जन्म में यह आप की स्त्री हो गई, क्योंकि तुम छोटे थे इसका शरीर बर्त गया । यह अमुक जगह जन्म लेकर तुम्हारी स्त्री बन गई । इस माया की विचित्रता पर फिर मुझे यहाँ हँसी आ गई । ब्रह्मऋषि के इस उपदेश को सुनकर स्त्री पुरुष दोनों, स्त्री - पुरुष का विषय वासनामय नाता मन से त्याग कर ज्ञान सम्पादन द्वारा मोक्ष को प्राप्त हो गये ।
(क्रमशः)

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