शुक्रवार, 29 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१२७/१२९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*अध्यात्म*
*दादू माया का जल पीवतां, व्याधि होइ विकार ।*
*सेझे का जल निर्मला, प्राण सुखी सुध सार ॥१२७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया का विषय - वासनामय जल पीने से शरीर में अनेक प्रकार के रोग और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार अधिक बढ़ते हैं, जिससे यह प्राणी जन्म - जन्मान्तरों में दुखी रहता है । सेझा, कहिए आत्मज्ञान रूपी अमृत जल के पान करने से प्राणधारी सुखी होकर शुद्ध बुद्धि द्वारा पारब्रह्म को प्राप्त कर लेता है ।
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*जीव गहिला जीव बावला, जीव दीवाना होइ ।*
*दादू अमृत छाड़ कर, विष पीवै सब कोइ ॥१२८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन ‘गहिले’, कहिए विवेक शून्य, बावला, परमेश्‍वर से विमुख, ‘दीवाना’, माया में मस्त, हो रहे हैं । ऐसे माया में अन्धे परमेश्‍वर की निष्काम भक्ति और ज्ञान को छोड़कर मायावी विषय - विकारों को ही भोगते हैं । उन्हें मनुष्य - जन्म की कुछ भी सुध - बुध नहीं है ॥१२८॥ 
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*ब्रह्मा विष्णु महेश लौं, सुर नर उरझाया ।*
*विष का अमृत नाम धर, सब किनहूँ खाया ॥१२९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस राम की माया ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सुर - देवता, नर - मनुष्य, इन सभी को अविद्या में भरमाया है और वे अविद्या - वश होकर विषयों को अमृत - तुल्य जानकर भोगे हैं ॥१२९॥ 
ज्ञान दीप उदोत उर, तम काटनि कलि काल । 
पल अंचल चंचल सखी, देत बुझाइ विशाल ॥ 
(क्रमशः)

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