रविवार, 3 मार्च 2013

= मन का अंग १० =(१२१/२३)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*मन बाहे मुनिवर बड़े, ब्रह्मा विष्णु महेश ।*
*सिद्ध साधक योगी यति, दादू देश विदेश ॥१२१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस मन ने मित्रावर्ण, पराशर आदि मुनियों को विषयों की ओर बहा दिया है । इस मन ने ब्रह्मा को बहा दिया, विष्णु को बहा दिया, शंकर को बहा दिया । इसने सिद्धों को, साधकों को, योगियों को, यतियों को, देश = स्वस्वरूप से, विदेश = बाह्य विषयों में सर्वत्र प्रवृत्त कर दिये हैं, ऐसा यह मन बलवान् है । इससे तो हे सिरजनहार ! आप ही रक्षा कर सकते हो । चिंतामणि, मन्दोदरी, सावित्री, वृन्दा, मोहिनी रूप इन सबके आख्यान प्रकट हैं ॥१२१॥ 
छन्द - 
जिन ठगे शंकर विधाता इन्द्र देव मुनि, 
आपनोहु अधिपति ठग्यो जिन चन्द है ।
और योगी जंगम सन्यासी शेख कौन गिनै, 
सबनि को ठगत, ठगावै न सुछंद है ॥ 
तापेश्‍वर ऋषीश्‍वर सब पचि पचि गये, 
काहु कै न आवै हाथ, ऐसो या पै बन्द है ।
सुन्दर कहत, वश कौन विधि कीजै ताहि, 
मन सो न कोऊ या जगत मांहि रिंदहै ॥ 
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*मनमुखी मान बड़ाई*
*पूजा मान बड़ाइयां, आदर मांगै मन ।*
*राम गहै, सब परिहरै, सोई साधु जन ॥१२२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन पूजा, मान, बड़ाई, आदर, इन वस्तुओं को चाहता है और जहां - जहां ये इसे प्राप्त होते हैं, वहां - वहां ही यह दौड़कर जाता है । परन्तु मुक्त - पुरुष, निज स्वरूप राम का अन्तःकरण में स्मरण ग्रहण करते हैं और उपरोक्त जिन विषयों को मन चाहता है, उनका वे पुरुष त्याग करते हैं । वे ही संतजन हैं ॥१२२॥ 
मान बड़ाई मन चहै, स्व स्वभाव ये आइ । 
‘तुलसी’ सन्त सयान सो, ये तज गोविन्द गाइ ॥ 
बायजीद के वचन का, शिष्य रहस्य नहीं जान । 
मन का मान उतार तू, अपनी गति पहचान ॥ 
दृष्टान्त - एशिया को वस्ताम देश का निवासी वायजीद वस्तामी को उनके एक शिष्य ने कहा - मुझे उच्च कोटि का उपदेश दीजिए । बायजीद ने उसकी परीक्षा लेने के लिये उसे कहा कि तुम गले में अखरोटों की झोली डालकर बाजार में जाओ और उच्च स्वर से बोलो - "मेरे सिर पर जो जूता मारेगा, उसे मैं अखरोट दूँगा ।" इस पर शिष्य ने अपनी मन: स्थिति बतलाते हुए गुरुजी से कहा - यह तो मेरे से नहीं होगा । बायजीद ने पहले मन के मान(आपा) को हटाओ, तब ही उच्च कोटि के उपदेश के अधिकारी बनोगे ।
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*जहां जहां आदर पाइये, तहां तहां जीव जाइ ।*
*बिन आदर दीजे राम रस, छाड़ि हलाहल खाइ ॥१२३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस - जिस स्थान में इसको आदर मिलता है इसकी मान प्रतिष्ठा होती है, वहां - वहां ही यह मनरूप जीव दौड़ - दौड़ कर जाता है, परन्तु राम - रस जहां बँटता है सत्संग में, वहां इस मनरूप जीव को इसकी इच्छा अनुसार आदर नहीं मिलता है । वहां सत्संग में इस मनरूप जीव को ले जाकर रामरस रूप अमृत पिलाओ । फिर यह मनरूप जीव शब्द - रूप - स्पर्शादि हलाहल विषयों को छोड़कर राम - रस को पीने लगेगा ॥१२३॥ 
गुरु दादू की कथा में, आवत एक रजपूत । 
सो ले आयो पावणो, सो उठ गयो कपूत ॥ 
दृष्टान्त - आमेर में ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज प्रवचन करते थे । एक राजपूत भी महाराज के प्रवचन में रोज आता । एक रोज उसके घर उसका कोई सम्बन्धी राजपूत आ गया । उसकी सब प्रकार अतिथि सेवा करके बोला, आप यहां आराम करो, मैं गुरुदेव के प्रवचन सुनकर अभी आऊँगा । वह बोला, हम भी चलेंगे, कैसे प्रवचन करते हैं ? वह उसको साथ लेकर आया । वह तो नमस्कार करके जहां जगह मिली, बैठ गया, परन्तु वह मेहमान खड़ा रहा आदर सम्मान की इच्छा करके । कुछ देर में रुष्ट होकर वापिस चला गया और कहने लगा - जहां आदर नहीं, मान नहीं, हुक्का नहीं, बीड़ी नहीं, वहां जाकर क्या करें ?’ पावणा राजपूत तो आदर सम्मान के लिये गया था, ज्ञान उपदेश लेने नहीं । वह तो बहिर्मुखी था । बाजार में एक वेश्या ने उन्हें जाते देखकर आदर से बुलाया, तब उसके पास चले गये और विषय रूप विष को प्राप्त करके मन में बड़े प्रसन्न हुए । तभी महाराज ने कहा है - प्राणी बिना आदर राम भक्ति रूप रसामृत को छोड़कर आदर और मान सहित विषय रूप विष पाकर भी प्रसन्न होता है ।
(क्रमशः)

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