*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*= मन का अंग १० =*
.
*करणी बिना कथनी*
*करणी किरका को नहिं, कथनी अनंत अपार ।*
*दादू यों क्यों पाइये, रे मन मूढ गँवार ॥१२४॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिनमें परमेश्वर की प्राप्ति कराने वाले साधन तो एक कण - मात्र भी नहीं हैं और वचन चातुरी बहुत है, ऐसे ज्ञानी और पंडित अनेकों हैं । जो भगवान् के तो गुणानुवाद एवं ज्ञान उपदेश सुनाते हैं, परन्तु उनमें भक्ति और ज्ञान की भावना तो लेशमात्र भी नहीं है । मन के भ्रमाये हुए, मोह में अंधे, विषयों में आसक्ति वाले, वाचक पंडित आत्म - तत्त्व को नहीं पहचान पाते ॥१२४॥
‘कबीर’ कथणी कथी तो क्या भया, करणी ना ठहराइ ।
कालबूत के कोट ज्यूं, देखत ही ढहि जाइ ॥
कहे सुने का होत है, ताहि न रीझे राम ।
कथणी रही अलाह दी, करणी सेती काम ॥
.
*जाया माया मोहनी*
*दादू मन मृतक भया, इंद्री अपने हाथ ।*
*तो भी कदे न कीजिये, कनक कामिनी साथ ॥१२५॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सतगुरु के उपदेशों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन से यह मन मर जाय, अर्थात् बहिरंग विषयों से मुक्त हो जाय, पंच ज्ञानेन्द्रियां सब स्वस्वरूप में संलग्न रहें, तो भी कनक और कामिनी का कदापि संग नहीं करना, क्योंकि यह मन बड़ा चंचल है । साधक पुरुषों को इस मन पर विश्वास नहीं करना चाहिये, इसको पलटते देर नहीं लगती ॥१२५॥
‘मोहन’ नर कूं फंद दोइ, कनक कामिनी गात ।
जे मन बास ह्वै आपको, तऊ न कीजे साथ ॥
.
*मन*
*अब मन निर्भय घर नहीं, भय में बैठा आइ ।*
*निर्भय संग थैं बीछुट्या, तब कायर ह्वै जाइ ॥१२६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन निर्भय घर, कहिए परमात्मा चैतन्य स्वरूप में स्थित नहीं होता, तभी इसको काल - कर्म, जन्म - मृत्यु आदिक भय व्याप्त हैं । क्योंकि निर्भय स्वरूप परमात्मा का नाम - स्मरण उससे बिछुड़ गया है, तभी यह नाम - स्मरणरूप साधनों से कायर होकर जन्म - मरण में भ्रमता है ॥१२६॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें