रविवार, 31 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१३९/१४१)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*दादू ऊभा सारं, बैठा विचारं, संभारं जागत सूता ।*
*तीन लोक तत जाल विडारण, तहाँ जाइगा पूता ॥१३९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया की शक्ति दर्शाते हैं कि सब प्राणी उठते - बैठते, सोते - जागते, खाते - पीते, चलते - फिरते, माया का ही विचार करते हैं और माया की सार - संभाल, देख - भाल मन वचन से रखते हैं । तीनों लोकों में ब्रह्म - तत्त्व के विडारणहार, तिरस्कार करने वाले, माया के भगरूप जाल में ही संसारी प्राणी निरंतर प्रवृत्त होते हैं, परन्तु जो वैराग्यवान् संत हैं, वे उठते - बैठते, जागते - सोते, सार ब्रह्मतत्त्व का विचार करते हैं । ऐसे पवित्र संतजन ही त्रिलोकी में ब्रह्म का अनुभव करके माया - जाल को नष्ट करते हैं और स्वयं अविचल भाव से स्वस्वरूप में ही स्थिर रहते हैं ॥१३९॥ 
गोरख सौं माया बदी, ठग्यो मछन्दरनाथ । 
बालक ह्वै माया ठगी, रांडी मींडत हाथ ॥ 
दृष्टान्त - एक समय माया योगीराज मत्स्येन्द्र नाथ जी के आश्रम के पास से जा रही थी तो वह आश्रम में युवा बालक गोरखनाथ के सुन्दर स्वरूप को देखते ही मोहित हो गयी । तब माया, मछन्दरनाथ जी महाराज के पास एक रूपवती महारानी का रूप बनाकर बहुत - सी भेंट पूजा आदि कर गई, नमस्कार किया और खूब सेवा की । मछन्दरनाथ जी बोले - "क्या चाहती है, मांग ?" "आपका शिष्य गोरखनाथ मुझे मिल जाये ।" मछन्दरनाथ जी ने ध्यान धर कर देखा तो यह तो माया है । तब गोरखनाथ जी को बोले - "बेटा हम तो छले गए ।" गोरखनाथ - कोई बात नहीं महाराज, आज्ञा देओ । मछन्दर - जाओ, इनके पास एक दो दिन रहकर आना । गोरखनाथ जी माया को बोले - चल । माया बोली - तू चल आगे । गोरखनाथ - "मैं पीछे चलूँगा ।" आगे माया हो गई । एक निर्जन स्थान पर पहुँचे । गोरखनाथ ने माया से कहा - तुम माया रचकर जिस उद्देश्य से मुझे ले जा रही हो, वह तुम्हारा उद्देश्य पूरा नहीं होगा, यह याद रखना । तुम यह जानती हो कि मेरा नाम ही गोरक्षनाथ है अर्थात् गो(इन्द्रियों) को वश में रक्ष(रख) कर मैं उनका नाथ(स्वामी) बन गया हूँ -
"ऊभा जीतूं, बैठा जीतूं, जीतूं जागत सूता । 
तीन लोक से न्यारा खेलूं, तो गोरख अवधूता ।"
इतना कहकर वे अष्ट कुंभक प्राणायाम योग साधन हेतु सिद्घासन लगाकर बैठ गये और ज्यौं ही पूरक क्रिया हेतु लम्बा श्‍वास खींचने लगे तो माया ‘प्राण पवन ज्यों पतला काया’ का सूक्ष्म रूप बनाकर उनके शरीर के भीतर प्रवेश कर हलचल करने लगी । गोरक्ष जी ने अष्ट प्रहर का कुम्भक साध लिया । अब तो माया घबरा गई । उसका दम घुटते देख रेचक क्रिया द्वारा उसे बाहर निकाला । बाहर आते ही माया बोली - तुम जानते नहीं, मैं माया हूँ । मैंने सबको अपने वश में कर रखा है - ‘माया सब गहले किये चौरासी लख जीव ।’ मेरे से बचकर तू कहाँ जायेगा -
‘उभा मारूं, बैठा मारूं, मारूं जागत सूता । 
तीन लोक भग जाल पसारूं, कहाँ जायगा पूता ॥ "
माया ने मोहिनी रूप धारण कर गोरक्ष को गोद में उठा लिया । गोरक्षनाथ ने सालभर के बच्चे का रूप बनाकर रोते हुए माया के ऊपर महान् दुर्गन्धि - युक्त मल त्याग दिया । इस प्रकार माया को वहीं पर तीन रोज तक मल - मूत्र साफ कराते - कराते तंग करते रहे । माया शर्मिन्दी होकर बोली - हे अवधूत ! तू मेरे से नहीं छला गया, तो अब तुझे त्रिलोकी में कोई नहीं छल सकता है । यह कहकर माया प्रस्थान कर गई । गोरखनाथ जी ने गुरु महाराज के चरणों में आकर नमस्कार किया ।
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*मूये सरीखे ह्वै रहे, जीवन की क्या आस ।*
*दादू राम विसार कर, बांछे भोग विलास ॥१४०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने मन इन्द्रियां मृतक तुल्य निर्वासनिक हो जावें और फिर विषयों में प्रवृत्त होने की कोई उम्मीद न रहे, तो भी इनका विश्‍वास नहीं करना, क्योंकि यह राम को भूलकर विषय - संग से तत्काल भोग - भोगने को इच्छा करते हैं । अर्थात् इस माया का ऐसा प्रभाव है कि जिनके जीवन की कोई आशा नहीं है, ऐसे अत्यन्त वृद्ध प्राणी मृतक के समान होकर भी परमेश्‍वर से विमुख रहते हैं और अनेक प्रकार के खाने - पीने आदि मायिक भोग - विलासों की तृष्णा में लगे रहते हैं अथवा माया की ऐसी प्रबलता है कि मृत सरीखे कहिए, निर्विषयी गुणातीत हुये कोई उत्तम पुरुष भी स्वस्वरूप को विसर कर, मायिक भोग - विलासों की कामना करने लगते हैं, इसलिये माया से सर्वदा सावधान रहना ॥१४०॥ 
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*कृत्रिम कर्ता*
*माया रूपी राम को, सब कोई ध्यावै ।*
*अलख आदि अनादि है, सो दादू गावै ॥१४१॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया विशिष्ट कहिए ब्रह्मा - विष्णु - महेश आदि की सभी सांसारिक प्राणी भोगों की कामना करके उपासना करते हैं और जो अलख है, मन वाणी का अविषय और अनादि है, उसको अर्थात् सत् चित् आनन्द स्वरूप राम को कोई भी नहीं स्मरण करते । जो ब्रह्मा विष्णु महेश आदि के भी मायिक शरीरों का जो अधिष्ठान रूप है, उसका तो कोई बिरले संतजन ही स्मरण करते हैं ।
(क्रमशः)

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