शनिवार, 9 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(१०/१२)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*चितावणी*
*सपने सब कुछ देखिये, जागे तो कुछ नांहि ।*
*ऐसा यहु संसार है, समझ देखि मन मांहि ॥१०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! स्वप्न अवस्था के पदार्थ सब प्रतिभासक सत्ता वाले हैं । जाग्रत अवस्था, कहिए व्यावहारिक सत्ता में उनका अभाव होता है और परमार्थ सत्ता में यह माया का कार्य संसार भी नहीं रहता है । इस प्रकार मन में विचार करके देखो, दोनों का ही अभाव हो जाता है ॥१०॥ 
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*दादू ज्यों कुछ सपने देखिये, तैसा यहु संसार ।*
*ऐसा आपा जानिये, फूल्यो कहा गँवार ॥११॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! निद्राकाल में जैसे स्वप्न - सृष्टि प्रतीत होती है, वैसे ही अज्ञान - काल में यह जाग्रत - सृष्टि सत्य भासती है । परन्तु हे गँवार ! विषयों के प्रेमी ! माया के इस वैभव को देखकर स्वस्वरूप आत्मा को नहीं भूल जाना ॥११॥ 
कवित्त
सपने की सम्पत्ति को देख कहा भूल रह्यो, 
जीवनो कितोक तामैं, मांड बैठ्यो फितनां ।
तन का तमासा ऐसा पांणी मैं पतासा जैसा, 
फूंक की मसक जैसे, जीव जानै जितना ॥ 
वारू की सी भींत जैसे, रहत पराये बस,
ओस की सी बूँद पै तुजक तेज जितना ।
*दादू जतन जतन करि राखिये, दिढ़ गहि आतम मूल ।*
*दूजा दृष्टि न देखिये, सब ही सैंबल फूल ॥१२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सबके कारण रूप मूल ब्रह्म में अपने अन्तःकरण की वृत्ति को अभ्यास द्वारा दृढ़(स्थिर) करिये । जैसे सेमल के लाल फूल में केवल कपास ही होती है और कोई खाने योग्य वस्तु नहीं होती, परन्तु फल के भ्रम में उसको खाकर जीव छले जाते हैं, इसी प्रकार नामरूप माया भी व्यवहार काल में सत्य भासती है, तथापि परमार्थ में उसकी कोई सत्ता नहीं है । हे साधक ! "दूजा दृष्टि न देखिये" अर्थात् दूजा कहिए, नामरूप माया को न देखकर इसके अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप को ही जानिये ॥१२॥ 
छप्यय
फूल्यौ सैंबल देखि, तहाँ बहुतै डहकाये । 
मान पदम को वृन्द, हंस तहाँ चलि आये ॥ 
पाको फलं मन मान, भ्रम भूल्यौ तहाँ सूवा । 
काग गृद्घ दृग मांस, जान सूरन जुदूवा(युद्घ) ॥ 
सिंदूर जान देवन - वधू, पुहुप मान भूले अली । 
रे शाल्मली जग वृच्छ कूँ, देखि लाल आतम छली ॥
(क्रमशः)

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