शुक्रवार, 8 मार्च 2013

= माया का अंग १२ =(७/९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*यहु सब माया मृग जल, झूठा झिलमिल होइ ।*
*दादू चिलका देखि कर, सत कर जाना सोइ ॥७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया और माया का कार्य, यह सम्पूर्ण जगत रंग - बिरंगा, मृगतृष्णा के जलवत् झूठा ही चमचमा रहा है । जैसे मृग मरुभूमि में जल की भ्रान्ति करके दौड़ - दौड़ कर प्यासा ही मर जाता है, इसी प्रकार विषयों में आसक्त अज्ञानी मानव इस मायिक सुख को भोगने के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्न कर - करके मर जाता है ॥७॥ 
सम्पद: प्रमदाश्‍चैव तंरगोत्संगभंगुरा: । 
न तास्वहिफणाच्छत्रछायासु रमते बुध: ॥
(योग वा.)
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*झूठा झिलमिल मृग जल, पाणी कर लीया ।*
*दादू जग प्यासा मरै, पसु प्राणी पीया ॥८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे मध्यो के सूर्य की कि रण पड़ने पर मरुभूमि में झिलमिलाहट रूप जल की प्रतीति होती है और तृषा से आतुर होकर मृग उस जल की भ्रान्ति को सत्य मानकर मरुभूमि पर दौड़कर जाता है । किन्तु वहाँ जाकर देखने से आगे वही मिथ्या जल की भ्रान्ति फिर से सत्यवत् प्रतीत होती है । पुनः पुनः दौड़ता है, परन्तु जल की प्राप्ति नहीं होने से मृग प्यासे ही मर जाते हैं । इसी प्रकार माया का चमत्कार यह ऐसा है कि इसमें नाम रूप जगत - प्रपंच सत्यवत् प्रतीत होता है और विषयों में आसक्त मनुष्य अनेकों कामनाओं के वश होकर क्लेशों को ही प्राप्त होते हैं ॥८॥ 
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*पति पहचान
*छलावा छल जायगा, सपना बाजी सोइ ।*
*दादू देख न भूलिये, यहु निज रूप न होइ ॥९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! छलावा रूपी भूत मार्ग में जाने वाले पुरुषों को अनेक प्रकार की चेष्टाओं द्वारा(कभी घोड़ा बन जाता है, कभी अंगार बरसाने लगता है, कभी रोता प्रतीत होता है), छलता रहता है यहाँ तक कि कभी - कभी उनके प्राण भी ले लेता है । इसी प्रकार यह माया की रचना स्वप्नवत् है । इसको देखकर अर्थात् इसमें आसक्त होकर परमेश्‍वर को नहीं भूल जाना । यह निज रूप परमेश्‍वर को प्राप्त करने के लिये मनुष्य देह है, सांसारिक तुच्छ भोगों को भोगने के लिए नहीं ॥९॥ 
कवित्त
सीत कोट संसार, झूठ सुपना रिधि रागी । 
मृगजल जगत सरूप, माया मर्कट की आगी ॥ 
शक्ति सलिलं के झाग, अजा - कुच कंठ न काजे । 
कहा सु विगत उजास, बाल बालू गृह साजे ॥ 
अति अयान कपि कूर मन, कृतम सु काष्ठ पूतली । 
‘रज्जब’ रैन भुजंग रजु, इहि अधार आतम छली ॥ 
गाँव वासि एक ठौर लखि, साधू संध्या कीन्ह । 
भूत कपट भोजन धर्यो, ताली पीटत चीन्ह ॥ 
दृष्टान्त - संध्या के समय एक संत गाँव के बाहर एक जगह आकर ठहरे और संध्या - भजन करने लगे । वहाँ एक छलावा भूत रहता था । वह कपट के भोजन लेकर आया । महात्मा के सामने रख कर नमस्कार किया । महात्मा जब संध्या कर चुके, तब वह भूत ताली बजाकर हँसने लगा । महात्मा जान गये कि यह तो छलावा है । उसकी लीला से चलायमान नहीं हुए । ऐसे ही यह माया भी छलावा रूप है, स्वप्ने जैसी बाजी है । इसको देखकर तत्त्ववेत्ता चलायमान नहीं होते हैं ।
(क्रमशः)

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