बुधवार, 24 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(१०३/५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*दादू कहतां कहतां दिन गये, सुनतां सुनतां जाइ ।*
*दादू ऐसा को नहीं, कहि सुनि राम समाइ ॥१०३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उपदेश करते - करते तो वक्ता की आयु समाप्त हो गई और उपदेश सुनते - सुनते श्रोताओं की आयु पूरी होती जा रही है । परन्तु उन वक्ता और श्रोताओं में ऐसा कोई भी नहीं है, जो परमेश्‍वर की महिमा कहते - कहते और सुनते - सुनते परमेश्‍वर में समा जाय । क्योंकि धारणा शक्ति बिना केवल कथन और श्रवण से स्वस्वरूप लाभ प्राप्त नहीं होता ॥१०३॥ 
बिन करनी के कथन को, आदर नहीं भव मांहि । 
वेश्यां यदि पतिव्रत कहै, त्रियगण मानैं नांहि ॥ 
पढै सुनावैं और को, पंडित भये अनेक । 
मन समझावै आपणां, सो रज्जब कोई एक ॥ 
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*मध्य निरपक्ष*
*मौन गहैं ते बावरे, बोलैं खरे अयान ।*
*सहजैं राते राम सौं, दादू सोई सयान ॥१०४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! साधक पुरुषों को हितकारक और सीमित वचन बोलना ही युक्ति - युक्त है तथा प्रभु भजन से मौन रहना भी अयुक्त ही है । जो पुरुष संसार के वातावरण से अपनी वाणी का संयम नहीं रखता, वह दुनियावादी मौनियों से भी मन्द बुद्धिवाला कहा जाता है । अर्थात् ऐसे पुरुष ही चतुर और ज्ञानी हैं, जो सहज स्वभाव से ही परमेश्‍वर में लीन रहते हैं, तथा परमेश्‍वर सम्बन्धी वार्ता तो बोलते हैं, परन्तु सांसारिक वातावरण से मौन रहते हैं ॥१०४॥ 
गिणे - मिणे बोले वचन, सो साधू तत सार । 
तुलसी खाली कुंभ ज्यूं, बकबो करै गँवार ॥ 
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*करुणा*
*कहतां सुनतां दिन गये, ह्वै कछू न आवा ।*
*दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछतावा ॥१०५॥*
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे परमेश्‍वर ! हे नाथ ! सम्पूर्ण आयु आपकी भक्ति बिना निष्फल ही जा रही है । आप दया करके आपकी भक्ति का दान देना, जिससे हमारा पश्‍चात्ताप मिटे । अथवा हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर की भक्ति के अतिरिक्त व्यावहारिक कथन - श्रवण में जो दिन जाते हैं, सो सब विफल हैं, क्योंकि भक्ति बिना प्राणी को प्राणान्त समय में केवल पश्‍चात्ताप ही रहता है ॥१०५॥ 
(क्रमशः)

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