रविवार, 16 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(३४/३६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*काहे दादू घर रहै, काहे वन - खंड जाइ ।*
*घर वन रहिता राम है, ताही सौं ल्यौ लाइ ॥३४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता संत घऱ और वन, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर ब्रह्मस्वरूप राम में लय लगाते हैं । इसी प्रकार उत्तम जिज्ञासु पुरुष, घर और वन का, या प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के अहंकार से रहित होकर आत्मस्वरूप राम में लय लगावें ॥३४॥ 
*दादू जिन प्राणी कर जानिया, घर वन एक समान ।* 
*घर मांही वन ज्यों रहै, सोई साधु सुजान ॥३५॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि जिन जिज्ञासुओं ने घर और वन इन दोनों को विचार द्वारा बराबर जानकर, अर्थात् घर कहिए प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार को त्यागकर घर में ही, कहिए प्रवृत्ति मार्ग में ही, ज्ञान द्वारा निवृत्ति कहिये अनासक्त होकर, राम से लय लगाते हैं, वही पुरुष सुजान नाम चतुर हैं ॥३५॥ 
*सब जग मांही एकला, देह निरंतर वास ।* 
*दादू कारण राम के, घर वन मांहि उदास ॥३६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण संसार की भोग - वासनाओं से रहित होकर, शुद्ध अन्तःकरण में विरही जन, राम के कारणै, घर प्रवृत्ति मार्ग और वन निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर नाम - स्मरण में लय लगाते हैं ॥३६॥ 
आदि अन्त जाको नहिं पावै । सोही पूरण देस कहावै ॥ 
सोही पूरण सबमें लहिये । सोही देव सकल सुख पइये ॥ 
(क्रमशः)

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