॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*घर वन मांही सुख नहीं, सुख है सांई पास ।*
*दादू तासौं मन मिल्या, इनतैं भया उदास ॥३७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! घर कहिए, प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों में ही सुख नहीं है । सुख तो केवल परमेश्वर के नाम - स्मरण में ही है । इसीलिए विरहीजन भक्त घर - वन में अहंकार को छोड़कर परमेश्वर के नाम स्मरण में अपने मन को लगाते हैं ॥३७॥
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*ना घर भला न वन भला, जहाँ नहीं निज नांव ।*
*दादू उनमन मन रहै, भला तो सोई ठांव ॥३८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! न तो प्रवृत्ति - मार्ग ही श्रेष्ठ है और निवृत्ति - मार्ग ही श्रेष्ठ है । प्रवृत्ति कहिए ग्रहस्थ आश्रम में रहकर जिनके हृदय में परमेश्वर का नाम - स्मरण नहीं है, और निवृत्ति कहिए वन में रहकर जिसने परमेश्वर का नाम - स्मरण नहीं किया, तो वह दोनों ही जगह किस काम की हैं ? वही स्थान ठीक है, चाहे निवृत्ति हो या प्रवृत्ति हो, उनमन कहिए जिनका मन नाम - स्मरण रूप ऊँची दशा में स्थिर है ॥३८॥
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*बैरागी वन में बसै, घरबारी घर मांहि ।*
*राम निराला रह गया, दादू इनमें नांहि ॥३९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वैराग्यमान तो वन में बसकर वन के अहंकार में बंधा है । हमें क्या लेना है दुनिया से ? हम तो कंदमूल, फल - पत्ती खाते हैं । और घरबारी गृहस्थी घर में अध्यास को लिये बैठे हैं और कहते हैं, हम तो कबीर साहब की तरह हैं । ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज फरमाते हैं कि राम के सच्चे निष्पक्ष भक्त तो इन दोनों से ही अलग हैं । वे राम में ही रत्त रहते हैं ॥३९॥
(क्रमशः)
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