सोमवार, 17 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(४०/४२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दीन दुनी सदिकै करूं, टुक देखण दे दीदार ।*
*तन मन भी छिन छिन करूं, भिश्त दोजग भी वार ॥४०॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज कहते हैं कि हे परमेश्‍वर ! दुनिया के दोनों दीन कहिए, हिन्दू - मुसलमान व मत - मतान्तरों की पक्ष - विपक्ष आपके अर्पण करते हैं । पलकमात्र आपका दर्शन देखने दो ! हमारा तन और मन भी हम निष्काम स्मरण द्वारा, क्षण - क्षण में आपके अर्पण करते हैं । भिश्त(स्वर्ग) और दोजख(नरक) के सुख - दुःख भी आपके ऊपर न्यौछावर करते हैं ॥४०॥ 
*दादू जीवन मरण का, मुझ पछतावा नांहि ।* 
*मुझ पछतावा पीव का, रह्या न नैनहुँ मांहि ॥४१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मध्यमार्गी विरहीजन भक्त कहते हैं कि हे प्रभु ! हमें जीने - मरने का कोई हर्ष - शोक नहीं है । केवल हमारे तो एक ही पश्‍चात्ताप है कि आपके दर्शन, सर्वगुण या निर्गुण रूप से, हमें नेत्रों के सामने नहीं हो रहे हैं ॥४१॥ 
राम संग मरणो भलो, बिना नाथ बेकाम । 
नारायण नैना बसै, ता मन लाइ सुधाम ॥ 
*स्वर्ग नरक संशय नहीं, जीवन मरण भय नांहि ।* 
*राम विमुख जे दिन गये, सो सालैं मन मांहि ॥४२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मध्यमार्गी विरही भक्तजन कहते हैं कि परमेश्‍वर ! हमारे मन में स्वर्ग - नरक के सुख - दुःखों का कोई संशय नहीं है और जीने - मरने से भी निर्भय हैं । परन्तु राम - भजन के बिना जो मनुष्य - जन्म के दिन प्रमाद में गये, उनका हमें भारी पश्‍चात्ताप हो रहा है ॥४२॥ 
एवमेव स्वर्गं गच्छामि नरकं वा, 
इत्यत्रादि न कश्‍चित्संशयोऽस्ति, 
अद्यैव मरणमस्तु दिनान्तरे वा, 
मम मनसि तु एतदेव दुःखं यद्यानि । 
दिनानि हरिविमुखानि गतानि, 
तानि शल्यतुल्यानि पीडयन्ति मे मनः ॥ 
- कठोपनिषद् 
(क्रमशः)

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