॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*स्वर्ग नरक सुख दुख तजे, जीवन मरण नशाइ ।*
*दादू लोभी राम का, को आवै को जाइ ॥४३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विरही भक्तजन कहते हैं कि हे परमेश्वर ! हमारे जीव पर प्रारब्ध - वश स्वर्ग के सुख - दुःख आओ चाहे जाओ, परन्तु विरही भक्तजन उनसे उदास रहते हैं, और सुख - दुःख मानने वाले अज्ञानी संसार - बन्धन में जन्मते - मरते हैं । और हे राम ! आपके सच्चे विरही भक्तजन आपके अद्वैत स्वरूप में मग्न रहते हैं ॥४३॥
नारायणपरा सर्वे, न कुतश्चिद् विभ्यति ।
स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थ – दर्शिनः ॥
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*मध्य निष्पक्ष*
*दादू हिन्दू तुरक न होइबा, साहिब सेती काम ।*
*षट् दर्शन के संग न जाइबा, निर्पख कहबा राम ॥४४॥*
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज से सीकरी में बादशाह अकबर ने प्रश्न किया कि हिन्दू मुसलमानों में आप कौनसा मत उत्तम मानते हो ? और हिन्दू धर्म में भी षट् दर्शनों में कौन - सा दर्शन श्रेष्ठ है ?
उत्तर ~ हे बादशाह ! निष्पक्ष सच्चे परमेश्वर के भक्तों को एक परमेश्वर से ही प्रयोजन है । हिन्दू - मुसलमान और छह दर्शन से हम उदासीन भाव होकर प्रभु - स्मरण में सहजावृत्ति द्वारा लीन रहते हैं । यही मत उत्तम है ।
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*षट् दर्शन दोन्यों नहीं, निरालंब निज बाट ।*
*दादू एकै आसरे, लंघे औघट घाट ॥४५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता मुक्तपुरुष, छः दर्शनों और दोनों धर्मो से उदासीन होकर सहज भाव से जीवन - मुक्त रूप रास्ते को प्राप्त करके एक अद्वैत की उपासना द्वारा देह - अध्यास और संसार - बन्धन रूप घाट से पार होते हैं ॥४५॥
(क्रमशः)
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