शुक्रवार, 28 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(१०/१२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*सारग्राही का अंग १७*
*दादू हंस परखिये, उत्तम करणी चाल ।*
*बगुला बैसे ध्यान धर, प्रत्यक्ष कहिये काल ॥१०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हंस के तद्वत् उत्तम परम विवेकी संतजन हैं । उनकी रहनी - करनी हंसों की भाँति उत्तम है । बगुलारूपी अज्ञानी, विषय आसक्त, संसारीजन, कपट - पूर्वक ध्यान करते हैं अर्थात् सकाम कर्मों के द्वारा स्मरण करते हैं । यह उनके लिये प्रत्यक्ष ही काल है और वे जन्म - मरण के चक्र में भ्रमते हैं ॥१०॥ 
*उज्ज्वल करणी हंस है, मैली करणी काग ।* 
*मध्यम करणी छाड़ि सब, दादू उत्तम भाग ॥११॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परम विवेकी संतों की करनी, कहिये कर्त्तव्य हंस की भांति आदर्शरूप होते हैं और सांसारिक अज्ञान जनों की करनी कर्त्तव्य, कौवे की भांति मैली है । अर्थात् सच्चे संतजन संसार की मैली करनी को छोड़कर अनन्य - भक्ति रूप उत्तम करनी करते हैं और परोपकार आदि में प्रवृत्त रहते हैं ॥११॥ 
*दादू निर्मल करणी साधु की, मैली सब संसार ।* 
*मैली मध्यम ह्वै गये, निर्मल सिरजनहार ॥१२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संतों की करनी = कर्त्तव्य पाप रहित होते हैं और संसारीजनों के करनी = कर्त्तव्य में कुछ न कुछ पाप अवश्य रहते हैं । मैली करनी करने वाले संसारीजन अधोगति में जाते हैं और उज्ज्वल करनी करने वाले संतजन परमेश्‍वर स्वरूप होते हैं ॥१२॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें