शनिवार, 29 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(१३/१५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*दादू करणी ऊपर जाति है, दूजा सोच निवार ।*
*मैली मध्यम ह्वै गये, उज्ज्वल ऊँच विचार ॥१३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जाति कर्मों के आधार पर है, जन्म पर नहीं है । इसलिये जन्म - जाति के विचार को त्यागकर मैली करनी करने वाले जन्म - जाति से ब्राह्मण भी मध्यम नीचे पद को प्राप्त हो जाते हैं और उज्वल सात्विक कर्म करने वाले शूद्र भी ब्राह्मण आदि उच्च पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥१३॥ 
न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्रह्ममिदं जगत् । 
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥(शान्तिपर्व) 
मनुष्यों में वर्णकृत सहज भेद नहीं है । 
ब्रह्मा ने आदि में सबको समान जन्म दिया । 
अपने कर्मों के भेद से वे अलग - अलग वर्ण को प्राप्त हो गये हैं । 
धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं वर्णमापद्यते जाति - परिवृत्तौ । 
अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जाति - परिवृत्तौ ॥ 
जिस कुल में जन्म हुआ हो, उस कुलवाला व्यक्ति यदि धर्म का आचरण करता है तो निचले कुल में उत्पन्न व्यक्ति क्र मशः ऊँचे वर्ण का बन जाता है । इसके विपरीत उत्तम कुल में जन्म लेकर भी जो अधर्म का आचरण करता है, वह निम्न से निम्नतर वर्ण का होता है । 
शूद्रोऽपि शील सम्पन्नो, गुणी ब्राह्मणो ह्युच्यते । 
ब्राह्मणोऽपि क्रि याभ्रष्टः, शूद्रात्परिभ्रष्टो भवेत् ॥ 
न शूद्रा भगवद्भक्ता विप्रा भागवता स्मृताः । 
सर्ववर्णेषु ते शूद्रा ये ह्यभक्ता जनार्दन ॥ 
एक नृप के कर में उग्यो, नाम चांडाल जु बाल । 
मिटिये खाये तासकन, ब्राह्मण हो चांडाल ॥ 
दृष्टान्त - एक राजा की हथेली पर चांडाल बाल उत्पन्न हुआ । बड़ी भारी पीड़ा होने लगी । एक संत बोले - हे राजन् ! किसी चांडाल ब्राह्मण की जूठन आप खाओ, तो यह बाल पीड़ा के सहित नष्ट हो जायेगा । तब राजा भेष बदलकर देहात में गया और वहाँ एक खेत में जन्म - जाति से ब्राह्मण को, जो बड़ा तामसिक था, हल जोतता देखा । हाथ में रोटी ले रखी है और खाता जाता है । बैलों के डंडे मारता है । कभी - कभी बैलों की पीठ में बुटकियाँ मारने लगता है । गालियाँ देता है । संत ने राजा को जो चांडाल के लक्षण बताये थे, वे सब उसमें राजा ने देख लिए और उसके पास जाकर बोला - "भाई ! एक टुकड़ा रोटी का मुझे भी दे दे, मैं भूखा हूँ ।" यह सुनकर उसने राजा के ऊपर डंडा उठाया और टुकड़ा नहीं दिया । खाते - खाते के हाथ से जरा सा टुकड़ा जमीन पर गिर गया । राजा ने दौड़कर उस टुकड़े को उठाया और खा लिया । उस चांडाल रूप ब्राह्मण ने राजा के तीन डंडे मारे, परन्तु राजा कुछ न बोला । राजा का चांडाल - बाल उसी समय नष्ट हो गया । 
*उज्वल करणी राम है, दादू दूजा धंध ।* 
*का कहिये समझै नहीं, चारों लोचन अंध ॥१४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! भगवान् सम्बन्धी जो कर्म करते हैं, वे संतभक्त राम रूप ही हैं और सब बात निरर्थक हैं । अर्थात् व्यावहारिक प्रपंच सब मिथ्या हैं । परन्तु सांसारिक अज्ञानी जीवों को किस तरह समझावें ? वे तो चतुष्टय अन्तःकरण रूपी वृत्ति नेत्रों से विचारहीन हैं । उनको परमेश्‍वर पर भरोसा नहीं है ॥१४॥ 
*दादू गऊ बच्छ का ज्ञान गहि, दूध रहै ल्यौ लाइ ।*
*सींग पूंछ पग परिहरै, स्तन हि लागै धाइ ॥१५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! गऊ और बच्छा वाले ज्ञान को ग्रहण कर । जैसे गऊ का छोटा बच्चा दौड़कर गऊ के पास आता है और इधर - उधर गाय के अवयवों में मुँह लगाता है, जब तक स्तन नहीं मिलते । जब स्तन मिल जाते हैं, तो फिर बड़े प्रेम से दूध पीकर पेट भर लेता है । इसी प्रकार यह संसार ही मानो गऊ का रूप है और व्यापक चैतन्य ही मानो दूध है और ब्रह्मनिष्ठ संतों के सत्संग में आकर उनके मुखारविन्द रूप स्तन से ज्ञानामृत पान करके साधक बच्छा पूर्ण तृप्त हो जाता है ॥१५॥ 
सार ग्रहै जगन्नाथ जन ले असार संसार । 
भाव भजन पै बच्छ ज्यूं, चींचर रुधिर विकार ॥ 
(क्रमशः)

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